शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

रेखा के जन्म दिन १० अक्टूबर पर जन्मदिन के मुबारक बाद के साथ -

डॉ.लाल रत्नाकर 
कहानी की दुनिया में नाना प्रकार के चरित्र चित्रित किये जाते है जिससे कहानी के विविध रूप हमें दिखाई देते है उसी में से उमराव जान की कहानी भी है जिसका फ़िल्मी करन मुज्जफ्फर अली साहब ने किया है, जिसमे रेखा ने उमराव जान का किरदार अदा की है -











Oct 10, 12:29 am

नहीं खींची जा सकी कोई दूसरी रेखा


जिन लोगों को अवध की कला और संस्कृति के बारे में जानकारी नहीं होती है, उन्हें फिल्म उमराव जान देखने की नसीहत दी जाती है। वजह है कि जिस खूबसूरती से रेखा ने उमराव जान का किरदार निभाकर अवध की तहजीब और संस्कृति की नजीर पेश की है वह दूसरों के लिए मिसाल बन गई। कभी-कभी कोई फनकार फसानों को भी हकीकत की शक्ल दे देता है। रेखा ने यही काम 'उमराव जान' के साथ किया है। अब इसके बाद तो कोई चाहकर भी यह नहीं चाहता कि कोई इसे फसाना कहे।
फिल्म के निर्देशक मुजफ्फर अली फरमाते हैं कि जबउमराव जान पर फिल्म बनाने की योजना बनी तो मेरे दिमाग में दो ही कलाकार थे, एक स्मिता पाटिल और दूसरी रेखा। काफी दिनों तक उमराव जान के कैरेक्टर को ध्यान में रखकर सोचने के बाद सिर्फ रेखा का ही नाम जेहन में रहा। स्क्रिप्ट सुनने के बाद रेखा ने हामी भर दी।
फिल्म की खासियत यह थी कि कहानी लखनऊ की, शूटिंग लखनऊ में और निर्देशक लखनऊ के। यहां के लोग इससे इतना उत्साहित थे कि जैसे घर में किसी शादी के दौरान सारे रिश्तेदार, दोस्त-यार और मुहल्ले वाले मदद को इकठ्ठा हो जाते हैं वैसे ही फिल्म के दौरान भी हो रहा था। जिस-जिस सामान की जरूरत होती वह कोई न कोई अपने घर से ले आता। रेखा इस माहौल की आदी न थीं। कई बार मुझसे सवाल पूछतीं कि क्या फलां आदमी यूनिट में हैं? मैं बताता नहीं, ये तो मुहल्ले वाले हैं। बहुत जल्दी ही उन्होंने अपने आपको इस लखनवी माहौल मे ढाल लिया। सबसे बड़ी मोहब्बत से पेश आतीं, कहीं से लगता ही नहीं था कि इतनी बड़ी सुपरस्टार हैं। शायद यही इस फिल्म की कामयाबी की वजह भी है।
बकौल मुजफ्फर वह ऐसी अदाकारा हैं कि जो कई ऐसी चीजों की कल्पना कर लेती है कि एक अभिनेत्री के नाते उनके मानस को जंचती है। हमेशा कुछ नया सीखने के लिए बच्चों की तरह वह व्याकुल रहती हैं। उनके साथ काम करना मेरी जिंदगी के चंद यादगार लम्हों में से एक है।
फिल्म उमराव जान की रिसर्च और लोकेशन कोआर्डिनेशन से जुड़े इतिहासकार योगेश प्रवीन रेखा का जिक्र आते ही उमराव जान 'अदा' का शेर कहते हैं
किसको सुनाए हाले दिले जोरे अदा,
अवारगी में हमने जमाने की सैर की।
बकौल उनके मुजफ्फर अली ने उमराव जान को फिर से जिन्दा कर दिया। रेखा, उमराव जान का विकल्प हो गईं थी। अब भी फिल्म देखकर लगता है कि उमराव जान ने नई उम्र पा ली है। यह उम्र इस शहर की तरह बहुत लंबी है। उनके मुताबिक 10 अक्टूबर को जन्मी रेखा के पिता जेमिनी गणेशन प्रसिद्ध तमिल अभिनेता थे और माता पुष्पावली तेलुगू अभिनेत्री थीं। दक्षिण भारत से होने के बावजूद उन्होंने जितनी तेजी से अवधी भाषा और संस्कृति को समझा-सीखा वह सिर्फ उनके जैसी सम्पूर्ण अभिनेत्री के बस की ही बात है। फिल्म की तैयारी में उन्होंने अवध की पूरी संस्कृति और इतिहास को खंगाल लिया। कई बार सर्जक अपने सृजन से खुद अपने लिए चुनौतियां खड़ी कर लेता है। योगेश कहते हैं कि मुझे यकीन है कि भविष्य में भी रेखा ऐसी चुनौतियों को स्वीकार कर बार-बार अपने लिए ऐसी ही सृजनात्मक चुनौतियां खड़ी करती रहेंगी ताकि दर्शकों को उनकी और बेहतरीन फिल्में देखने का मौका मिले। इतनी महान अभिनेत्री के लिए इस शेर के साथ बात खत्म करने की इजाजत,
शब-ए-फुरकत बसर नहीं होती,
नहीं होती सहर नहीं होती
शोर-ए-फरयाद अर्श तक पहुंचा
मगर उसको खबर नहीं होती।
[आरिफ]
( दैनिक जागरण से साभार )

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