मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

उम्मीद है कि मंगल गीत की तरह लगेंगी वो गालियां


(जनतंत्र  से  साभार)

प्रोफ़ेसर काशी नाथ सिंह हिन्दी के बेहतरीन लेखक हैं। ज़रुरत से ज्यादा ईमानदार हैं और लेखन में अपने गांव जीयनपुर की माटी की खुशबू के पुट देने से बाज नहीं आते। हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े भाई के सबसे छोटे भाई हैं। उनके भइया का नाम दुनिया भर में इज्ज़त से लिया जाता है। और स्कूल से लेकर आज तक हमेशा अपने भइया से उनकी तुलना होती रही है। उनके भइया को उनकी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई। अपना मोर्चा जैसा कालजयी उपन्यास भी नहीं। यह अलग बात है कि उस उपन्यास का नाम दुनिया भर में है। कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ‘ साठ और सत्तर के दशक की छात्र राजनीति पर लिखा गया वह सबसे अच्छा उपन्यास है। काशीनाथ सिंह फरमाते हैं कि शायद ही उनकी कोई ऐसी कहानी हो जो भइया को पसंद हो लेकिन ऐसा संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज भी शायद ही हो जो उन्हें नापसंद हो। शायद इसीलिये काशीनाथ सिंह जैसा समर्थ लेखक कहानी से संस्मरण और फिर संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की तरफ गया। उनके भइया भी कोई लल्लू पंजू नहीं, हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष डॉ नामवर सिंह हैं ।

नामवर सिंह ने काशी में आठ आने रोज़ पर भी ज़िंदगी बसर की है और इतना ही खर्च करके हिन्दी साहित्य को बहुत बड़ा योगदान दिया है। काशीनाथ सिंह ने बताया है कि उनके भइया ने ज़िंदगी में बहुत कम समझौते किये हैं। हम यह भी जानते हैं कि उनके भइया की आदर्शवादी जिद के कारण परिवार को और काशीनाथ सिंह को बहुत कुछ झेलना पड़ा। काशीनाथ सिंह के लिए तो सबसे बड़ी मुसीबत यही थी कि जाने अनजाने वे जीवन भर नामवर सिंह के बरक्स नापे जाते रहे। जो लोग नामवर सिंह को जानते हैं, उन्हें मालूम है कि किसी भी सभा सोसाइटी में नामवर सिंह का ज़िक्र आ जाने के बाद बाकी कार्यवाही उनके इर्द गिर्द ही घूमती रहती है। मैं यह बात १९७६ से देख रहा हूं।
नामवर सिंह का विरोध करने पर मैंने कुछ लोगों को पिटते भी देखा है। इमरजेंसी के तुरंत बाद ३५ फिरोजशाह रोड, नयी दिल्ली में एक सम्मलेन हुआ था। उस वक़्त की एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक का एक चेला मय लाव लश्कर मुंबई से दिल्ली पंहुचा था। बहुत कुछ पैसा कौड़ी बटोर रखा था उसने और नामवर सिंह के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश कर रहा था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने उस धतेंगड़ की विधिवत पिटाई कर दी थी। पीटने वालों में वे लोग भी थे जो आज के बहुत बड़े कवि और लेखक हैं। उस पहलवान को दो चार ठूंसा मैंने भी लगाया था। बाद में जब मैंने भाई लोगों से पूछा कि जे एन यू की परंपरा तो बहस की है, इस बेचारे को शारीरिक कष्ट क्यों दिया जा रहा है, तो आज के एक बड़े कवि ने बताया कि भैंस के आगे बीन बजाने की स्वतंत्रता तो सब को है लेकिन उसको समझा सकना हमेशा से असंभव रहा है। इसलिए अगर पशुनुमा साहित्यकार को कुछ समझाना हो तो यही विधि समीचीन मानी गयी है।
मुराद यह है कि काशीनाथ सिंह इस तरह के नामवर इंसान के छोटे भाई हैं। आज भी जब नामवर सिंह उनको “काशीनाथ जी” कहते हैं तो आम तौर पर काशी कहे जाने वाले बाबू साहेब असहज हो जाते हैं। आम तौर पर लेखकों को कुछ भी लिखते समय आलोचक की दहशत नहीं होती लेकिन काशीनाथ सिंह को तो कुछ लिखना शुरू करने से पहले से ही देश के सबसे बड़े आलोचक का आतंक रहता है। एक तो बाघ दूसरे बन्दूक बांधे। लेकिन इन्हीं हालात में डॉ काशीनाथ सिंह ने हिन्दी को बेहतरीन साहित्य दिया है।’ घोआस’ जैसा नाटक, ‘आलोचना भी रचना है ‘ जैसी समीक्षा ,’अपना मोर्चा ‘और ‘ काशी का अस्सी ‘जैसा उपन्यास डॉ काशीनाथ सिंह ने इन्हीं परिस्थितियों में लिखा है। ‘अपना मोर्चा ‘ विश्व साहित्य में अपना मुकाम बना चुका है। और अब पता चला है कि उनके उपन्यास ” काशी का अस्सी ” को आधार बनाकर एक फिल्म बन रही है।
इस फिल्म का निर्माण हिन्दी सिनेमा के चाणक्य , डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी कर रहे हैं। अपने नामी धारावाहिक “चाणक्य” की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म ‘ पिंजर ‘ बनाई थी तो भारत के बंटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था। छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने देखा था, उस से लोग सिहर उठे थे। जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था। मैंने वो फिल्म अपनी पत्नी के साथ सिनेमा हाल में जाकर देखी थी। मेरी पत्नी फिल्म की वस्तुपरक सच्चाई से सिहर उठी थीं। बाद में मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म ” पिंजर ” देखी जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं। उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे। फिल्म बहुत ही रियल थी। लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली।
“पिंजर” का बाक्स आफिस पर धूम न मचा पाना मेरे लिए एक पहेली थी। मैंने बार बार फिल्म के माध्यम को समझने वालों से इसके बारे में पूछा। किसी के पास कोई जवाब नहीं था। अब जाकर बात समझ में आई जब मैंने यह सवाल डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी से ही पूछ दिया। उनका कहना है शायद अवसाद को बहुत देर तक झेल पाना इंसानी प्रकृति में नहीं है। दूसरी बात यह कि फिल्म के विज़ुअल कला पक्ष को बहुत ही आथेंटिक बनाने के चक्कर में पूरी फिल्म में धूसर रंग ही हावी रहा। तीसरी बात जो उन्होंने बतायी वह यह कि फिल्म लम्बी हो गयी तीन घंटे तक दर्द के बीच रहना बहुत कठिन काम है।
मुझे लगता है कि डॉ साहब की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं। ऐतिहासिक फिल्म बनाना ही बहुत रिस्की सौदा है और उसमें दर्द को ईमानदारी से प्रस्तुत करके तो शायद आग से खेलने जैसा है, लेकिन अपने चाणक्य जी ने वह खेल कर दिखाया उनकी आर्थिक स्थिति तो शायद इस फिल्म के बाद खासी पतली हो गयी। लेकिन उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक ऐसी फिल्म दे दी जो आने वाली पीढ़ियों के लिए सन्दर्भ का काम करेगी।
इस बीच पता चला है कि डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने काशी नाथ सिंह के उपन्यास “काशी का अस्सी” के आधार पर फिल्म बनाने का मंसूबा बना लिया है। पिछली गलतियों से बचना तो इंसान का स्वभाव है। कहानी के पात्रों के साथ ईमानदारी के लिए विख्यात डॉ द्विवेदी से उम्मीद की जानी चाहिए कि बनारस की ज़िंदगी की बारीक समझ पर आधारित काशीनाथ सिंह के उपन्यास के डॉ गया सिंह, उपाध्याय जी, केदार, उप्धाइन वगैरह पूरी दुनिया के सामने नज़र आएंगे। हालांकि इस कथानक में भी दर्द की बहुत सारी गठरियां हैं लेकिन बनारसी मस्ती भी है। अवसाद को “पिंजर” का स्थायी भाव बना कर हाथ जला चुके चाणक्य से उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार वे मस्ती को ही कहानी का स्थायी भाव बनायेगें। दर्द का छौंक ही रहेगा।
व्यापारिक सफलता की बात तो हम नहीं कर सकते, क्योंकि वह विधा अपनी समझ में नहीं आती लेकिन चाणक्य और पिंजर के हर फ्रेम को देखने के बाद यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी के एक बेहतरीन उपन्यास पर आधारित एक बहुत अच्छी फिल्म बाज़ार में आने वाली है। इस उपन्यास में बनारसी गालियां भी हैं लेकिन मुझे भरोसा है कि यह गालियां फिल्म में वैसी ही लगेगीं जैसी शादी ब्याह के अवसर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाये जाने वाले मंगल गीत