शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कालेज का हेडमास्टर/प्रिंसिपल/प्राचार्य

डॉ.लाल रत्नाकर   
यह कहानी 'कहते हुए 'न' तो आनंद आएगा, 'न' दुःख होगा , न किसी को इसमें  छेड़ा गया है, पर ये कहानी एक ऐसी कहानी है जिसमे एक पढ़े लिखे आदमी की कथा है जिसे इतने हथकंडे आते है जिससे वह इतना माहिर था जितना कि कोई भी शातिर से शातिर अपराधी भी नहीं कर पाते है, जितना दिखाई देता है उससे कई हज़ार गुना शातिरपन उसमें है | पर वह हमेशा भोला भाला दिखाई देगा, देखकर किसी को नहीं लगेगा की यह इतना बड़ा अपराधी भी होगा  |
                                   कहानी का   आज दयाल साहब रोज की तरह देर से आये है , डॉ. कानिया उन्हें सबूत आँख से तरेरने की हरकत की तैयारी करते से सकुचाये हुए अजीब सा मुह बनाते है, तभी दुखी राम बोल पड़ते है डॉ.दयाल आ गए यही क्या कम है डॉ.कानिया,..........डॉ.दयाल गुस्से में क्या कह रहा है यह कंचोदा......कानिया ही ही करते हुए अरे भाई मै तो कुछ कहाँ कह रहा हूँ, फिर डॉ.दयाल साले मै जानता हूँ तुम्हारी हरामगिरी तुम्हे दिखाई तो देता नहीं कहाँ गया 'ओ' उसी से यह ठीक रहता है , ओ आते ही डॉ. दुखी राम और दुखी हो गए जीतनी गालियाँ वह डॉ. कानिया को दिलाना चाह रहे थे उतनी आज डॉ.दयाल ने डॉ कानिया को नहीं दी थी.
                               आज प्राचार्य अभी तक नहीं आया था डॉ.दयाल का ड्राइवर  कचौड़ी का डिब्बा लेकर जैसे ही अन्दर आया डॉ.कानिया भगा दफ्तर की ओर अरे साहब डॉ.दयाल साहब आप का इंतजार कर रहे है चलो भाई तुम यहाँ कैसे हो , अरे भाई आप लोग ले लीजिये, नहीं साहब बिना आपके कैसे सब इंतजार कर रहे है, इतने में 'ओ' आ गया था और '२०' नंबर में अफसर अली ने डिब्बा खोला डॉ.दयाल ने कहा गया कानिया, दुखीराम ने कहा दफ्तर गया होगा आका को बुलाने सचमुच इतने में कानिया प्राचार्य को लेकर पहुंचा तो महिलाएं जलेबी ख़तम करने पर आमादा थी, ही ही करते हुए कानिया बोला अरे भाई इंतजार तो कर लेते . पर 'ओ' बोला अरे कुछ बचा है क्या पर कानिया की ही ही और डॉ.दयाल का मुंह पोछते हुए बाहर आना अरे भाई अफसर अली देखो चाय वाले से चाय बोलकर एक बिना चीनी के ले आना प्रिंसिपल के लिए, और इस काम के लिए अफसर अली चला गया .
                          कानिया के लिए एक लडके को लेकर 'दलमोथ' आता है साहब इनका न तो एडमिट कार्ड है और न ही इनके पास २० रूपया ही है की डुप्लीकेट एडमिट कार्ड बना सकें, कानिया पता नहीं कहाँ से चले आते है, क्या नाम है तुम्हारा अशोक कुमार वर्मा, जेब से २० रूपया निकाल कर उस बच्चे को देते हुए कहते है की जाओ जल्दी से डुप्लीकेट बना कर अपने कमरे में जाओ, प्राचार्य के पास आकर कानिया कहता है साहब बच्चे जल्दी जल्दी में आ जाते है पैसे भी नहीं लाते, प्रिंसिपल कहता है क्या हुआ इनका न तो एडमिट कार्ड है और न ही इनके पास २० रूपया ही है की डुप्लीकेट एडमिट कार्ड बना सकें, फिर २० रुपये दिये हमने .
                          इसी तरह के कर्मों वाले उसके इर्द गिर्द वाले भी है जो बहुत ही नायब तरीके अख्तियार करके नाना प्रकार के अपराधिक कर्मों में लगे है, कई तो प्रापर्टी डीलर है, कई शातिर किस्म के राजनितिक, जिस प्रकार एक वेश्या शर्म को पी चुकी होती है, पर मुस्करा रही होती है कुछ वैसे ही मुस्कराते हुए इस आदमीनुमा जीव को कभी भी देखा जा सकता है जो कभी कभी अपने दफ्तर में नज़र आता है | जब उसका लेन देन का कोई मतलब होता है |
                         इसके संपर्क कहते है बड़े तगड़े तगड़े है, पुराने सांसद, कई पुराने न्यायविद , कई बड़े अधिकारी , शिक्षा विभाग में तो उसकी तूती बोलती है , इधर काफी दिनों से शिक्षक संघ के नेता जो उसके इर्द गिर्द घूम रहे है, अपनी जाती के करीब करीब हर तरह के आदमी को पकड़ रखा है |
                               यह कहानी एसे घिनौने आदमी की है जो मानसिक रूप से बीमार है, उसके इर्द गिर्द उसके दुश्मन है जो दिल है वह कुछ और ही है, दिल  तो उसके पास है ही नहीं, पर पेट के ऊपर मोटा सा निशान जो चिरकर नहीं बनाया गया है वह दिल तक तो जाता है, लोग कहते है की दिल का बीमार है वह पर दरअसल दिमाग से बीमार है, इतना बड़ा बीमार आदमी एक कालेज का हेडमास्टर बन गया है . यह अजीबो गरीब कहानी है .
वह शराबी भी था जुआरी भी था, पर एक जो बात आप नहीं जानते होंगे वही इस कहानी का कथ्य है हाँ यही है वह आदमी जिसे हर आदमी कहता यही कहता था उसको हर आदमी की बहुत हरामी है बच के रहना, पर जिसे देखो उससे सटना ही चाहता या सटे बगैर रहा ही नहीं जाता, दरअसल वह इतना हरामी था की उसे किसी की इज्जत ही नहीं करनी आती थी, जब वह मास्टर लोगों के रजिस्टर देखता जिसके दस्तखत नहीं होते और वह सीधे अपनी क्लास में चला गया होता तो उसके दस्तखत के खाने में 'लाल' निसान लगा जाता और महिला टीचर के खाने में तो जुरूर 'क्रास' लगता.
                             उसने बहुत चमचे तो नहीं बना पाए पर एक 'चमचा' बनाया जिसका काम केवल अपनेनुमा अंधे लंगड़े लालची और नमक हरामी खोजना था जो उसे मिलते गए . एक से बढ़ कर एक जिसमे एक खूबी दिखाई दी की स्वजातीय चमचे, वाह क्या कम्बीनेशन था , भोदू , डरपोक , चरित्रहीन , घुशखोर , जितने भी  सब को एक जुट किया जब जाति से बाहर निकाला तो उनको तलाशा जो उसी की तरह के निकम्मे और हरामी थे , कहते है की उनमे ऐसे ऐसे टीचेर थे जिनकी हालत से भगवान बचाए और यही फौज थी कालेज की जिसका नायक था 'फर्जी' . और इसी फर्जी ने आतंक फ़ैलाने और लूट खसोट के लिए बना रहा था 'गिरोह' जिसके गिरोह का हाल 'खाप' जैसा था कमोबेश असगर अली इंजिनीयर के नीचे के लेख जैसा प्रशासन यथा-
                     इनके आलेख में जो चिंता 'गाँधी की अहिंसा को लेकर है' वही चिंता इस विद्यालय के कुछ प्रतिभा संपन्न शिक्षकों में भी है पर फर्जी का अर्थ और फ़र्ज़ तो आप समझ ही जायेंगे यदि नहीं समझ में आ रहा है तो यूँ समझिये की उसने जब यहाँ नौकरी शुरू की तो कालेज के संस्थापक प्रिंसिपल ने उसके फर्जीवाड़े को तभी पकड़ा था और उसे कालेज से निकालने की मंजूरी ले ली थी, पर उस समय के शिक्षकों ने इस पर दया करके इसको किसी तरह नौकरी बचाने में सहयोग किया और किसी तरह फर्जी की नौकरी बची और तभी से इसने 'कसम खा ली' की जितना इस कालेज को लूट सको लूटो. 
                   अब दौर था डाक्टर इंजिनियर और अधिकारी बनाने का सो ट्यूशन की योजना बनाकर लग गया ट्यूशन में कालेज से गोल और कक्षाओं से गायब ट्यूशन ही ट्यूशन उसके ट्यूशन के ज़माने के भी अजीबों गरीब किस्से जैन साहब बताते है उनने अपनी बेटी को ट्यूशन के लिए इसके यहाँ भेजा 'फीस दिया' और उसी महीने दुबारा तगादा* कर दिया बेटा पैसे नहीं आये जैन साहब को जब बेटी ने बताया वह सुख गए यह जाकर याद दिलाना चाहे तो मानकर ही नहीं दिया दुबारा ट्यूशन फी लिया एक ही महीने का, यही हाल मैडम का भी हुआ उनका बेटा पैसा देकर आया और एक हफ्ते में फिर तगादा.
(टीप - रचना में दिए गए स्थान व व्यक्तियों के नाम पूर्णतः काल्पनिक हैं, और किसी जीवित-मृत व्यक्ति से संबंधित नहीं हैं)   

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