मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

उम्मीद है कि मंगल गीत की तरह लगेंगी वो गालियां


(जनतंत्र  से  साभार)

प्रोफ़ेसर काशी नाथ सिंह हिन्दी के बेहतरीन लेखक हैं। ज़रुरत से ज्यादा ईमानदार हैं और लेखन में अपने गांव जीयनपुर की माटी की खुशबू के पुट देने से बाज नहीं आते। हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े भाई के सबसे छोटे भाई हैं। उनके भइया का नाम दुनिया भर में इज्ज़त से लिया जाता है। और स्कूल से लेकर आज तक हमेशा अपने भइया से उनकी तुलना होती रही है। उनके भइया को उनकी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई। अपना मोर्चा जैसा कालजयी उपन्यास भी नहीं। यह अलग बात है कि उस उपन्यास का नाम दुनिया भर में है। कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ‘ साठ और सत्तर के दशक की छात्र राजनीति पर लिखा गया वह सबसे अच्छा उपन्यास है। काशीनाथ सिंह फरमाते हैं कि शायद ही उनकी कोई ऐसी कहानी हो जो भइया को पसंद हो लेकिन ऐसा संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज भी शायद ही हो जो उन्हें नापसंद हो। शायद इसीलिये काशीनाथ सिंह जैसा समर्थ लेखक कहानी से संस्मरण और फिर संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की तरफ गया। उनके भइया भी कोई लल्लू पंजू नहीं, हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष डॉ नामवर सिंह हैं ।

नामवर सिंह ने काशी में आठ आने रोज़ पर भी ज़िंदगी बसर की है और इतना ही खर्च करके हिन्दी साहित्य को बहुत बड़ा योगदान दिया है। काशीनाथ सिंह ने बताया है कि उनके भइया ने ज़िंदगी में बहुत कम समझौते किये हैं। हम यह भी जानते हैं कि उनके भइया की आदर्शवादी जिद के कारण परिवार को और काशीनाथ सिंह को बहुत कुछ झेलना पड़ा। काशीनाथ सिंह के लिए तो सबसे बड़ी मुसीबत यही थी कि जाने अनजाने वे जीवन भर नामवर सिंह के बरक्स नापे जाते रहे। जो लोग नामवर सिंह को जानते हैं, उन्हें मालूम है कि किसी भी सभा सोसाइटी में नामवर सिंह का ज़िक्र आ जाने के बाद बाकी कार्यवाही उनके इर्द गिर्द ही घूमती रहती है। मैं यह बात १९७६ से देख रहा हूं।
नामवर सिंह का विरोध करने पर मैंने कुछ लोगों को पिटते भी देखा है। इमरजेंसी के तुरंत बाद ३५ फिरोजशाह रोड, नयी दिल्ली में एक सम्मलेन हुआ था। उस वक़्त की एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक का एक चेला मय लाव लश्कर मुंबई से दिल्ली पंहुचा था। बहुत कुछ पैसा कौड़ी बटोर रखा था उसने और नामवर सिंह के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश कर रहा था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने उस धतेंगड़ की विधिवत पिटाई कर दी थी। पीटने वालों में वे लोग भी थे जो आज के बहुत बड़े कवि और लेखक हैं। उस पहलवान को दो चार ठूंसा मैंने भी लगाया था। बाद में जब मैंने भाई लोगों से पूछा कि जे एन यू की परंपरा तो बहस की है, इस बेचारे को शारीरिक कष्ट क्यों दिया जा रहा है, तो आज के एक बड़े कवि ने बताया कि भैंस के आगे बीन बजाने की स्वतंत्रता तो सब को है लेकिन उसको समझा सकना हमेशा से असंभव रहा है। इसलिए अगर पशुनुमा साहित्यकार को कुछ समझाना हो तो यही विधि समीचीन मानी गयी है।
मुराद यह है कि काशीनाथ सिंह इस तरह के नामवर इंसान के छोटे भाई हैं। आज भी जब नामवर सिंह उनको “काशीनाथ जी” कहते हैं तो आम तौर पर काशी कहे जाने वाले बाबू साहेब असहज हो जाते हैं। आम तौर पर लेखकों को कुछ भी लिखते समय आलोचक की दहशत नहीं होती लेकिन काशीनाथ सिंह को तो कुछ लिखना शुरू करने से पहले से ही देश के सबसे बड़े आलोचक का आतंक रहता है। एक तो बाघ दूसरे बन्दूक बांधे। लेकिन इन्हीं हालात में डॉ काशीनाथ सिंह ने हिन्दी को बेहतरीन साहित्य दिया है।’ घोआस’ जैसा नाटक, ‘आलोचना भी रचना है ‘ जैसी समीक्षा ,’अपना मोर्चा ‘और ‘ काशी का अस्सी ‘जैसा उपन्यास डॉ काशीनाथ सिंह ने इन्हीं परिस्थितियों में लिखा है। ‘अपना मोर्चा ‘ विश्व साहित्य में अपना मुकाम बना चुका है। और अब पता चला है कि उनके उपन्यास ” काशी का अस्सी ” को आधार बनाकर एक फिल्म बन रही है।
इस फिल्म का निर्माण हिन्दी सिनेमा के चाणक्य , डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी कर रहे हैं। अपने नामी धारावाहिक “चाणक्य” की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म ‘ पिंजर ‘ बनाई थी तो भारत के बंटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था। छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने देखा था, उस से लोग सिहर उठे थे। जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था। मैंने वो फिल्म अपनी पत्नी के साथ सिनेमा हाल में जाकर देखी थी। मेरी पत्नी फिल्म की वस्तुपरक सच्चाई से सिहर उठी थीं। बाद में मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म ” पिंजर ” देखी जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं। उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे। फिल्म बहुत ही रियल थी। लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली।
“पिंजर” का बाक्स आफिस पर धूम न मचा पाना मेरे लिए एक पहेली थी। मैंने बार बार फिल्म के माध्यम को समझने वालों से इसके बारे में पूछा। किसी के पास कोई जवाब नहीं था। अब जाकर बात समझ में आई जब मैंने यह सवाल डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी से ही पूछ दिया। उनका कहना है शायद अवसाद को बहुत देर तक झेल पाना इंसानी प्रकृति में नहीं है। दूसरी बात यह कि फिल्म के विज़ुअल कला पक्ष को बहुत ही आथेंटिक बनाने के चक्कर में पूरी फिल्म में धूसर रंग ही हावी रहा। तीसरी बात जो उन्होंने बतायी वह यह कि फिल्म लम्बी हो गयी तीन घंटे तक दर्द के बीच रहना बहुत कठिन काम है।
मुझे लगता है कि डॉ साहब की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं। ऐतिहासिक फिल्म बनाना ही बहुत रिस्की सौदा है और उसमें दर्द को ईमानदारी से प्रस्तुत करके तो शायद आग से खेलने जैसा है, लेकिन अपने चाणक्य जी ने वह खेल कर दिखाया उनकी आर्थिक स्थिति तो शायद इस फिल्म के बाद खासी पतली हो गयी। लेकिन उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक ऐसी फिल्म दे दी जो आने वाली पीढ़ियों के लिए सन्दर्भ का काम करेगी।
इस बीच पता चला है कि डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने काशी नाथ सिंह के उपन्यास “काशी का अस्सी” के आधार पर फिल्म बनाने का मंसूबा बना लिया है। पिछली गलतियों से बचना तो इंसान का स्वभाव है। कहानी के पात्रों के साथ ईमानदारी के लिए विख्यात डॉ द्विवेदी से उम्मीद की जानी चाहिए कि बनारस की ज़िंदगी की बारीक समझ पर आधारित काशीनाथ सिंह के उपन्यास के डॉ गया सिंह, उपाध्याय जी, केदार, उप्धाइन वगैरह पूरी दुनिया के सामने नज़र आएंगे। हालांकि इस कथानक में भी दर्द की बहुत सारी गठरियां हैं लेकिन बनारसी मस्ती भी है। अवसाद को “पिंजर” का स्थायी भाव बना कर हाथ जला चुके चाणक्य से उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार वे मस्ती को ही कहानी का स्थायी भाव बनायेगें। दर्द का छौंक ही रहेगा।
व्यापारिक सफलता की बात तो हम नहीं कर सकते, क्योंकि वह विधा अपनी समझ में नहीं आती लेकिन चाणक्य और पिंजर के हर फ्रेम को देखने के बाद यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी के एक बेहतरीन उपन्यास पर आधारित एक बहुत अच्छी फिल्म बाज़ार में आने वाली है। इस उपन्यास में बनारसी गालियां भी हैं लेकिन मुझे भरोसा है कि यह गालियां फिल्म में वैसी ही लगेगीं जैसी शादी ब्याह के अवसर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाये जाने वाले मंगल गीत

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

रेखा के जन्म दिन १० अक्टूबर पर जन्मदिन के मुबारक बाद के साथ -

डॉ.लाल रत्नाकर 
कहानी की दुनिया में नाना प्रकार के चरित्र चित्रित किये जाते है जिससे कहानी के विविध रूप हमें दिखाई देते है उसी में से उमराव जान की कहानी भी है जिसका फ़िल्मी करन मुज्जफ्फर अली साहब ने किया है, जिसमे रेखा ने उमराव जान का किरदार अदा की है -











Oct 10, 12:29 am

नहीं खींची जा सकी कोई दूसरी रेखा


जिन लोगों को अवध की कला और संस्कृति के बारे में जानकारी नहीं होती है, उन्हें फिल्म उमराव जान देखने की नसीहत दी जाती है। वजह है कि जिस खूबसूरती से रेखा ने उमराव जान का किरदार निभाकर अवध की तहजीब और संस्कृति की नजीर पेश की है वह दूसरों के लिए मिसाल बन गई। कभी-कभी कोई फनकार फसानों को भी हकीकत की शक्ल दे देता है। रेखा ने यही काम 'उमराव जान' के साथ किया है। अब इसके बाद तो कोई चाहकर भी यह नहीं चाहता कि कोई इसे फसाना कहे।
फिल्म के निर्देशक मुजफ्फर अली फरमाते हैं कि जबउमराव जान पर फिल्म बनाने की योजना बनी तो मेरे दिमाग में दो ही कलाकार थे, एक स्मिता पाटिल और दूसरी रेखा। काफी दिनों तक उमराव जान के कैरेक्टर को ध्यान में रखकर सोचने के बाद सिर्फ रेखा का ही नाम जेहन में रहा। स्क्रिप्ट सुनने के बाद रेखा ने हामी भर दी।
फिल्म की खासियत यह थी कि कहानी लखनऊ की, शूटिंग लखनऊ में और निर्देशक लखनऊ के। यहां के लोग इससे इतना उत्साहित थे कि जैसे घर में किसी शादी के दौरान सारे रिश्तेदार, दोस्त-यार और मुहल्ले वाले मदद को इकठ्ठा हो जाते हैं वैसे ही फिल्म के दौरान भी हो रहा था। जिस-जिस सामान की जरूरत होती वह कोई न कोई अपने घर से ले आता। रेखा इस माहौल की आदी न थीं। कई बार मुझसे सवाल पूछतीं कि क्या फलां आदमी यूनिट में हैं? मैं बताता नहीं, ये तो मुहल्ले वाले हैं। बहुत जल्दी ही उन्होंने अपने आपको इस लखनवी माहौल मे ढाल लिया। सबसे बड़ी मोहब्बत से पेश आतीं, कहीं से लगता ही नहीं था कि इतनी बड़ी सुपरस्टार हैं। शायद यही इस फिल्म की कामयाबी की वजह भी है।
बकौल मुजफ्फर वह ऐसी अदाकारा हैं कि जो कई ऐसी चीजों की कल्पना कर लेती है कि एक अभिनेत्री के नाते उनके मानस को जंचती है। हमेशा कुछ नया सीखने के लिए बच्चों की तरह वह व्याकुल रहती हैं। उनके साथ काम करना मेरी जिंदगी के चंद यादगार लम्हों में से एक है।
फिल्म उमराव जान की रिसर्च और लोकेशन कोआर्डिनेशन से जुड़े इतिहासकार योगेश प्रवीन रेखा का जिक्र आते ही उमराव जान 'अदा' का शेर कहते हैं
किसको सुनाए हाले दिले जोरे अदा,
अवारगी में हमने जमाने की सैर की।
बकौल उनके मुजफ्फर अली ने उमराव जान को फिर से जिन्दा कर दिया। रेखा, उमराव जान का विकल्प हो गईं थी। अब भी फिल्म देखकर लगता है कि उमराव जान ने नई उम्र पा ली है। यह उम्र इस शहर की तरह बहुत लंबी है। उनके मुताबिक 10 अक्टूबर को जन्मी रेखा के पिता जेमिनी गणेशन प्रसिद्ध तमिल अभिनेता थे और माता पुष्पावली तेलुगू अभिनेत्री थीं। दक्षिण भारत से होने के बावजूद उन्होंने जितनी तेजी से अवधी भाषा और संस्कृति को समझा-सीखा वह सिर्फ उनके जैसी सम्पूर्ण अभिनेत्री के बस की ही बात है। फिल्म की तैयारी में उन्होंने अवध की पूरी संस्कृति और इतिहास को खंगाल लिया। कई बार सर्जक अपने सृजन से खुद अपने लिए चुनौतियां खड़ी कर लेता है। योगेश कहते हैं कि मुझे यकीन है कि भविष्य में भी रेखा ऐसी चुनौतियों को स्वीकार कर बार-बार अपने लिए ऐसी ही सृजनात्मक चुनौतियां खड़ी करती रहेंगी ताकि दर्शकों को उनकी और बेहतरीन फिल्में देखने का मौका मिले। इतनी महान अभिनेत्री के लिए इस शेर के साथ बात खत्म करने की इजाजत,
शब-ए-फुरकत बसर नहीं होती,
नहीं होती सहर नहीं होती
शोर-ए-फरयाद अर्श तक पहुंचा
मगर उसको खबर नहीं होती।
[आरिफ]
( दैनिक जागरण से साभार )

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

क्या कमाल का प्रिंसिपल है !

डॉ.लाल रत्नाकर
मुझे याद है जब मै इस शहर के एक बड़े कालेज में ज्वाइन किया था तब पता चला की यह साहब फला सिंह है और इनकी कोचिंग टॉप पर है, यह ज्यादा समय अपने कोचिंग में ही ब्यस्त रहते है , उन दिनों उस विभाग में कई लोग इस अतरिक्त पेशे में लगे हुए थे  पर वह अपनी कालेज की क्लासेस भी लेते थे, पर फला सिंह कभी क्लास में जाते ही नहीं थे, यह बात तब पता चली जब रायसाहब ने यह बताया की यह ससुरा कभी क्लास लिया हो तब तो जाने की कालेज क्या होता है, प्रिंसिपली करने चला आया है. 

बुधवार, 22 सितंबर 2010

वाह रे नेता जी !

डॉ.लाल रत्नाकर
नेता जी ने गुंडागर्दी के बल पर मास्टरी पाई की नहीं पाई यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह की 'एक गुंडा जो मास्टर बन जाय और पूरे शिक्षा तंत्र में अपने इसी रूप और संस्कार को व्यवस्था का हिस्सा बना दे' कुछ ऐसा ही एक नेता हमारी जानकारी में आया है, उसके जिस जिस से सम्बन्ध रहा है उसकी स्थिति अच्छी नहीं रही है या तो वह आज नौकरी में नहीं है या मुकदमे झेल रहा है, इस बीच उस नेता के चक्कर में जो भी आया उसे वह चूना जरुर लगाया. चरित्र लिखवाने से लेकर अपने चरित्रहीनों को बचाने तक का सारा काम नेता जी को खूब रास आता है नेता है तो गाली गलौज तो करेगा ही.

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

यह ब्लॉग कहानी के लिए है पर जो कहानी 'अदम गोंडवी के इस गीत में है' पढ़िए -


मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को                                             
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है


थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं                                                                                                                                                           
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
                                                                                               
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई                                                                             
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था

भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"                                                          

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

रचनाकार:अदम गोंडवी                                                                                       

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कालेज का हेडमास्टर/प्रिंसिपल/प्राचार्य

डॉ.लाल रत्नाकर   
यह कहानी 'कहते हुए 'न' तो आनंद आएगा, 'न' दुःख होगा , न किसी को इसमें  छेड़ा गया है, पर ये कहानी एक ऐसी कहानी है जिसमे एक पढ़े लिखे आदमी की कथा है जिसे इतने हथकंडे आते है जिससे वह इतना माहिर था जितना कि कोई भी शातिर से शातिर अपराधी भी नहीं कर पाते है, जितना दिखाई देता है उससे कई हज़ार गुना शातिरपन उसमें है | पर वह हमेशा भोला भाला दिखाई देगा, देखकर किसी को नहीं लगेगा की यह इतना बड़ा अपराधी भी होगा  |
                                   कहानी का   आज दयाल साहब रोज की तरह देर से आये है , डॉ. कानिया उन्हें सबूत आँख से तरेरने की हरकत की तैयारी करते से सकुचाये हुए अजीब सा मुह बनाते है, तभी दुखी राम बोल पड़ते है डॉ.दयाल आ गए यही क्या कम है डॉ.कानिया,..........डॉ.दयाल गुस्से में क्या कह रहा है यह कंचोदा......कानिया ही ही करते हुए अरे भाई मै तो कुछ कहाँ कह रहा हूँ, फिर डॉ.दयाल साले मै जानता हूँ तुम्हारी हरामगिरी तुम्हे दिखाई तो देता नहीं कहाँ गया 'ओ' उसी से यह ठीक रहता है , ओ आते ही डॉ. दुखी राम और दुखी हो गए जीतनी गालियाँ वह डॉ. कानिया को दिलाना चाह रहे थे उतनी आज डॉ.दयाल ने डॉ कानिया को नहीं दी थी.
                               आज प्राचार्य अभी तक नहीं आया था डॉ.दयाल का ड्राइवर  कचौड़ी का डिब्बा लेकर जैसे ही अन्दर आया डॉ.कानिया भगा दफ्तर की ओर अरे साहब डॉ.दयाल साहब आप का इंतजार कर रहे है चलो भाई तुम यहाँ कैसे हो , अरे भाई आप लोग ले लीजिये, नहीं साहब बिना आपके कैसे सब इंतजार कर रहे है, इतने में 'ओ' आ गया था और '२०' नंबर में अफसर अली ने डिब्बा खोला डॉ.दयाल ने कहा गया कानिया, दुखीराम ने कहा दफ्तर गया होगा आका को बुलाने सचमुच इतने में कानिया प्राचार्य को लेकर पहुंचा तो महिलाएं जलेबी ख़तम करने पर आमादा थी, ही ही करते हुए कानिया बोला अरे भाई इंतजार तो कर लेते . पर 'ओ' बोला अरे कुछ बचा है क्या पर कानिया की ही ही और डॉ.दयाल का मुंह पोछते हुए बाहर आना अरे भाई अफसर अली देखो चाय वाले से चाय बोलकर एक बिना चीनी के ले आना प्रिंसिपल के लिए, और इस काम के लिए अफसर अली चला गया .
                          कानिया के लिए एक लडके को लेकर 'दलमोथ' आता है साहब इनका न तो एडमिट कार्ड है और न ही इनके पास २० रूपया ही है की डुप्लीकेट एडमिट कार्ड बना सकें, कानिया पता नहीं कहाँ से चले आते है, क्या नाम है तुम्हारा अशोक कुमार वर्मा, जेब से २० रूपया निकाल कर उस बच्चे को देते हुए कहते है की जाओ जल्दी से डुप्लीकेट बना कर अपने कमरे में जाओ, प्राचार्य के पास आकर कानिया कहता है साहब बच्चे जल्दी जल्दी में आ जाते है पैसे भी नहीं लाते, प्रिंसिपल कहता है क्या हुआ इनका न तो एडमिट कार्ड है और न ही इनके पास २० रूपया ही है की डुप्लीकेट एडमिट कार्ड बना सकें, फिर २० रुपये दिये हमने .
                          इसी तरह के कर्मों वाले उसके इर्द गिर्द वाले भी है जो बहुत ही नायब तरीके अख्तियार करके नाना प्रकार के अपराधिक कर्मों में लगे है, कई तो प्रापर्टी डीलर है, कई शातिर किस्म के राजनितिक, जिस प्रकार एक वेश्या शर्म को पी चुकी होती है, पर मुस्करा रही होती है कुछ वैसे ही मुस्कराते हुए इस आदमीनुमा जीव को कभी भी देखा जा सकता है जो कभी कभी अपने दफ्तर में नज़र आता है | जब उसका लेन देन का कोई मतलब होता है |
                         इसके संपर्क कहते है बड़े तगड़े तगड़े है, पुराने सांसद, कई पुराने न्यायविद , कई बड़े अधिकारी , शिक्षा विभाग में तो उसकी तूती बोलती है , इधर काफी दिनों से शिक्षक संघ के नेता जो उसके इर्द गिर्द घूम रहे है, अपनी जाती के करीब करीब हर तरह के आदमी को पकड़ रखा है |
                               यह कहानी एसे घिनौने आदमी की है जो मानसिक रूप से बीमार है, उसके इर्द गिर्द उसके दुश्मन है जो दिल है वह कुछ और ही है, दिल  तो उसके पास है ही नहीं, पर पेट के ऊपर मोटा सा निशान जो चिरकर नहीं बनाया गया है वह दिल तक तो जाता है, लोग कहते है की दिल का बीमार है वह पर दरअसल दिमाग से बीमार है, इतना बड़ा बीमार आदमी एक कालेज का हेडमास्टर बन गया है . यह अजीबो गरीब कहानी है .
वह शराबी भी था जुआरी भी था, पर एक जो बात आप नहीं जानते होंगे वही इस कहानी का कथ्य है हाँ यही है वह आदमी जिसे हर आदमी कहता यही कहता था उसको हर आदमी की बहुत हरामी है बच के रहना, पर जिसे देखो उससे सटना ही चाहता या सटे बगैर रहा ही नहीं जाता, दरअसल वह इतना हरामी था की उसे किसी की इज्जत ही नहीं करनी आती थी, जब वह मास्टर लोगों के रजिस्टर देखता जिसके दस्तखत नहीं होते और वह सीधे अपनी क्लास में चला गया होता तो उसके दस्तखत के खाने में 'लाल' निसान लगा जाता और महिला टीचर के खाने में तो जुरूर 'क्रास' लगता.
                             उसने बहुत चमचे तो नहीं बना पाए पर एक 'चमचा' बनाया जिसका काम केवल अपनेनुमा अंधे लंगड़े लालची और नमक हरामी खोजना था जो उसे मिलते गए . एक से बढ़ कर एक जिसमे एक खूबी दिखाई दी की स्वजातीय चमचे, वाह क्या कम्बीनेशन था , भोदू , डरपोक , चरित्रहीन , घुशखोर , जितने भी  सब को एक जुट किया जब जाति से बाहर निकाला तो उनको तलाशा जो उसी की तरह के निकम्मे और हरामी थे , कहते है की उनमे ऐसे ऐसे टीचेर थे जिनकी हालत से भगवान बचाए और यही फौज थी कालेज की जिसका नायक था 'फर्जी' . और इसी फर्जी ने आतंक फ़ैलाने और लूट खसोट के लिए बना रहा था 'गिरोह' जिसके गिरोह का हाल 'खाप' जैसा था कमोबेश असगर अली इंजिनीयर के नीचे के लेख जैसा प्रशासन यथा-
                     इनके आलेख में जो चिंता 'गाँधी की अहिंसा को लेकर है' वही चिंता इस विद्यालय के कुछ प्रतिभा संपन्न शिक्षकों में भी है पर फर्जी का अर्थ और फ़र्ज़ तो आप समझ ही जायेंगे यदि नहीं समझ में आ रहा है तो यूँ समझिये की उसने जब यहाँ नौकरी शुरू की तो कालेज के संस्थापक प्रिंसिपल ने उसके फर्जीवाड़े को तभी पकड़ा था और उसे कालेज से निकालने की मंजूरी ले ली थी, पर उस समय के शिक्षकों ने इस पर दया करके इसको किसी तरह नौकरी बचाने में सहयोग किया और किसी तरह फर्जी की नौकरी बची और तभी से इसने 'कसम खा ली' की जितना इस कालेज को लूट सको लूटो. 
                   अब दौर था डाक्टर इंजिनियर और अधिकारी बनाने का सो ट्यूशन की योजना बनाकर लग गया ट्यूशन में कालेज से गोल और कक्षाओं से गायब ट्यूशन ही ट्यूशन उसके ट्यूशन के ज़माने के भी अजीबों गरीब किस्से जैन साहब बताते है उनने अपनी बेटी को ट्यूशन के लिए इसके यहाँ भेजा 'फीस दिया' और उसी महीने दुबारा तगादा* कर दिया बेटा पैसे नहीं आये जैन साहब को जब बेटी ने बताया वह सुख गए यह जाकर याद दिलाना चाहे तो मानकर ही नहीं दिया दुबारा ट्यूशन फी लिया एक ही महीने का, यही हाल मैडम का भी हुआ उनका बेटा पैसा देकर आया और एक हफ्ते में फिर तगादा.
(टीप - रचना में दिए गए स्थान व व्यक्तियों के नाम पूर्णतः काल्पनिक हैं, और किसी जीवित-मृत व्यक्ति से संबंधित नहीं हैं)   

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

एक कहानी यह भी है .............

डॉ. लाल रत्नाकर 

मा.एल. नाथ वैसे कहने को तो समाजवादी था पर वोट हमेशा सांप्रदायिक पार्टी को देता था क्योंकि उस पार्टी का कंडीडेट उसकी विरादरी का होता था, वैसे तो प्रजा और राजा वाला उसका आचरण अच्छा तो नहीं लगता था लेकिन चूँकि वह शिक्षक संगठन का जुगाडू प्रतिनिधि बन बैठा था और सबसे करीबी दिखाता था तो कभी कभार उसकी तरफ भी हो लेने का मन ना  होते हुए भी डॉ.बांगड़ू निकल ही जाता था उसके घर की ओर .

संयोग था डॉ.बांगड़ू को भी नाइ से बाल ठीक कराने के लिए जाना था जब नाई के यहाँ पहुंचा तो आस पास के झुग्गी के बच्चो की लाईन लगी थी इतने सबेरे इतनी बड़ी बाल कटाने वालों  की लाईन देख डॉ.बांगड़ू  को कुछ समझ ना आया मोबइल में देखा अभी सात भी नहीं बजे थे, मा. एल. नाथ से मिले भी काफी दिन हो गए थे सो गाड़ी स्टार्ट किया और उसी मोहल्ले में रह रहे तथा कथित समाजवादी मा.एल.नाथ के यहाँ पहुँच गया, प्रदेश के समाजवादी शिक्षक संस्था के महामंत्री, अध्यक्ष और शहर के तथाकथित नेतानुमा एकाध उसके जी हुजूरी करने वाले इतने सुबह वहां मौजूद थे .

डॉ.बांगड़ू  की नयी कार देख नेता नुमा मा.एल.नाथ बौखलाहट में बोला  कहाँ मंगनी की कार लेकर घूम रहे हो, डॉ.बांगड़ू  बोला आई.सी.आई.सी.आई. की है, चहिये तो आपके लिए भी इंतजाम करूँ ''गांड में लोहा डाल के तुम्ही घूमों" मुहं पिचकाते हुए मा.एल.नाथ पजामे का नाडा कसने लगा और बोला अभी तो हम जल्दी में है कहीं जा रहे है, इतने में भीतर से सूबे के क्रांतिकारी दुबे जी ने बाहर निकलते हुए कहे डॉ.बांगड़ू  कहाँ हो मै कल से ही खोज रहा हूँ, मा.एल.नाथ तो कह रहे थे कहीं गए हो, यह सुन मा.एल.नाथ लाल पिला होने लगा डॉ.बांगड़ू मा.एल.नाथ की ओर देखते हुए बोला हा हा आजकल जरा इनका दरबार नहीं लगा पा रहा हूँ. 
दुबे जी आ  हा हा हा ......कार कर कहने लगे इनके कौन है दरबारी  कल के मीटिंग में तो इनके साथ कोई था ही नहीं, अलबत्ता करना अपनी गाड़ी में पिपिया के साथ दुखपाल और बैरागी को भर कर लाया था एक और कोई था जो काला चश्मा रात में भी पहने था, 

डॉ.बांगड़ू  चलो दिल्ली में राष्ट्रीय बैठक चल रही है, मैंने पत्र तो  शिक्षक संस्था के मंडलीय  महामंत्री मा.एल.नाथ को भेजा भी था और फोन पर भी कहा था, तुम्हारी टीम का कोई नज़र ही नहीं आया मा.एल.नाथ कह रहा था तुम लोगों का पता ही नहीं है, डॉ.बांगड़ू  तपाक से बोला जो ये नेता बनाये है ये जनता का नेता नहीं है, इसके दरबारी सारे पूंजीवादी, सांप्रदायिक और चमचे है उनको यह सारे ठेके दिलाता है ............... वो गए तो रहे होंगे ..?

राधेश्याम सर पर तेल मलते हुए चड्ढी बाहर धूप में फ़ैलाने के लिए निकले डॉ.बांगड़ू  खड़ा होकर अध्यक्ष जी नमस्कार अरे भाई डॉ.बांगड़ू  जी कहाँ है कल से ही आपकी खोज हो रही है मा.एल.नाथ फिर तिलमिलाया दुबे जी जल्दी तैयार होईये भाई साहब का ड्राईवर आ रहा है .
अध्यक्ष बोले - मा.एल.नाथ इन्हें ले चलो ....!
मा.एल.नाथ अचकचाता हुआ ... अध्यक्ष जी जल्दी कपडे पहनिए, अध्यक्ष राधेश्याम अरे भाई डॉ.बांगड़ू  आप भी तैयार होकर तो आये ही है आईये दिल्ली चलते है ..
मा.एल.नाथ खिसियाते हुए तो आप इनको लेकर आईयेगा हम तो जा रहे है, चलिए दुबे जी नास्ता करते है, अध्यक्ष और  डॉ.बांगड़ू  अवाक्.... नहीं अध्यक्ष जी आप जाईये मै तो बाल कटाने आया था नाइ के यहाँ भीड़ थी सो यहाँ आ गया संयोग था आप सब से मुलाकात हो गयी, कहाँ है मीटिंग  मौका निकाल कर मै आ जाऊंगा . बंग भवन .

डॉ.बांगड़ू नाई के यहाँ गया बाल कटाया पटरी की गुमटी के सामने नयी कार ओ भी थोड़े ऊँचे मोडल की नाई भी जरा साफ सा कपड़ा निकाला और डॉ.बांगड़ू के गले में लपटते हुए कहा काफी दिनों के बाद आना हुआ , डॉ.बांगड़ू  बोला काफी फसा हुआ था, नाई बोला मोहल्ले वाले मास्टर जी भी  आजकल नज़र नही आ रहे है , डॉ.बांगड़ू  बताया अभी मै वही से आ रहा हूँ जरा आजकल कुछ मेहमानों में घिरे है , मैंने उनसे नगरायुक्त से एक गुमटी के लिसेंस के लिए कहा था तब से आना ही छोड़ दिये, आपकी बात मानते है साहब मेरा लाइसेंस का कह कर करा दीजिये ! अरे भाई ओ किसी की बात नहीं मानते तुम्हे क्या लगा उनके कहने से काम हो जायेगा , वो पान वाला यादव कह रहा था नगरायुक्त इनके यहाँ आते जाते रहते है , एक बार और बोल के देख ले .

डॉ.बांगड़ू घूमते घामते बंग भवन पहुच गया, राष्ट्रीय अधिवेशन जहाँ सारे देश के शिक्षकों का जमावड़ा संगठन की संरचना का गहमी गहमा शिक्षकों का चंदा खा गए नेताओं की पद हथियाने की कवायद उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम हर रूप रंग के स्त्री व् पुरुष छुपे हुए एजेंडे , पर हर एक पर अविश्वास एक कोने में माँ. एल. नाथ सूबे के अध्यक्ष को जी भर कर गरिया रहा था पर दुबे जी कुछ बोल नहीं रहे थे एक तरफ विशाल साम्राज्य का शेर अपनी वीमारी से थका हारा रेसप्सन के सोफे पर आराम भी नहीं कर पा रहे थे कोई आकर कुछ कान में फुसुर फुसुर कर रहा है जो सुनायी दे रहा था उसमे अंतिम याचना संगठन में किसी न किसी पद की ही थी . मा.एल.नाथ कहीं से घूमते घामते आ गया, गुस्से में  तम तमाया बोला दुबे जी देख लीजियेगा मै संगठन नहीं चलाने दूंगा देखूंगा किसकी क्या औकात है पर दुबे जी जैसे मा.एल.नाथ को जैसे सुन ही नहीं रहे हों .

सूबे के अध्यक्ष राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाये गए थे जिसका संज्ञान दुबे जी को पहले से ही था या यूँ कहें की यह पद भी दुबे जी की अनुकम्पा का परिणाम ही था , माँ. एल. नाथ यह बात अच्छी तरह जानता था पर दुबे जी इसकी हरकत और औकात जानते थे , पर इतना जरुर था की अब मा.एल.नाथ से दुखी रहने लगे थे , एक और था जो दिखाने को तो बहुत भारी नेता था पर खाने पिने के कारण बीमार रहने लगा था उसे लोग प्यार से प्रोफ. पिपिया के नाम से ही पुकारते थे इस पर भी दुबे जी की दया दृष्टि थी यह बात मा.एल.नाथ को बहुत खलती थी. 

पिछले दिनों एक घटना घटी मा.एल.नाथ जो पार्टी का एस.जी . भी था पर जहाँ काम करने आया था वहां के संगठन वालों ने इस मा.एल.नाथ की प्राथमिक सदस्यता ख़त्म कर दी जिसकी खबर सभी समाचार पत्रों में छपी मा.एल.नाथ जानता था इसके पीछे किसका हाथ है इसी से वह प्रोफ.पिपिया से खूब चिढ़ता था, पिपिया भी उसी फर्जी इंचार्ज के साथ था जिसका कर्मचारी मा.एल.नाथ था पर इसमे कौन सी गोट कौन चल रहा है पता नहीं चल रहा था . जिस सभा में मा.एल.नाथ को निकाला जा रहा था उसमे केवल और केवल कोई नहीं था तो वह डॉ.बांगड़ू और उसकी टीम . मा.एल.नाथ के सारे चमचे वहाँ मौजूद थे पर किसी ने चूं तक नहीं किया था .


अभी - अभी खबर आई है की मा.एल.नाथ  एक खबर लेकर आया की आज इस संस्था 


(टीप - रचना में दिए गए स्थान व व्यक्तियों के नाम पूर्णतः काल्पनिक हैं, और किसी जीवित-मृत व्यक्ति से संबंधित नहीं हैं) 

एक कहानी यह भी है .............


..  मा.एल. नाथ वैसे कहने को तो समाजवादी था पर वोट हमेशा सांप्रदायिक पार्टी को देता था क्योंकि उस पार्टी का कंडीडेट उसकी विरादरी का होता था, वैसे तो प्रजा और राजा वाला उसका आचरण अच्छा तो नहीं लगता था लेकिन चूँकि वह शिक्षक संगठन का जुगाडू प्रतिनिधि बन बैठा था और सबसे करीबी दिखाता था तो कभी कभार उसकी तरफ भी हो लेने का मन ना  होते हुए भी डॉ.बांगड़ू निकल ही जाता था उसके घर की ओर . 


संयोग था डॉ.बांगड़ू को भी नाइ से बाल ठीक कराने के लिए जाना था जब नाई के यहाँ पहुंचा तो आस पास के झुग्गी के बच्चो की लाईन लगी थी इतने सबेरे इतनी बड़ी बाल कटाने वालों  की लाईन देख डॉ.बांगड़ू  को कुछ समझ ना आया मोबइल में देखा अभी सात भी नहीं बजे थे, मा. एल. नाथ से मिले भी काफी दिन हो गए थे सो गाड़ी स्टार्ट किया और उसी मोहल्ले में रह रहे तथा कथित समाजवादी मा.एल.नाथ के यहाँ पहुँच गया, प्रदेश के समाजवादी शिक्षक संस्था के महामंत्री, अध्यक्ष और शहर के तथाकथित नेतानुमा एकाध उसके जी हुजूरी करने वाले इतने सुबह वहां मौजूद थे .

डॉ.बांगड़ू  की नयी कार देख नेता नुमा मा.एल.नाथ बौखलाहट में बोला  कहाँ मंगनी की कार लेकर घूम रहे हो, डॉ.बांगड़ू  बोला आई.सी.आई.सी.आई. की है, चहिये तो आपके लिए भी इंतजाम करूँ ''गांड में लोहा डाल के तुम्ही घूमों" मुहं पिचकाते हुए मा.एल.नाथ पजामे का नाडा कसने लगा और बोला अभी तो हम जल्दी में है कहीं जा रहे है, इतने में भीतर से सूबे के क्रांतिकारी दुबे जी ने बाहर निकलते हुए कहा डॉ.बांगड़ू  कहाँ हो मै कल से ही खोज रहा हूँ, मा.एल.नाथ तो कह रहे थे कहीं गए हो, यह सुन मा.एल.नाथ लाल पिला होने लगा डॉ.बांगड़ू मा.एल.नाथ की ओर देखते हुए बोला हा हा आजकल जरा इनका दरबार नहीं लगा पा रहा हूँ, दुबे जी आ  हा हा हा ......कार कर कहने लगे इनके कौन दरबारी है कल के आन्दोलन में तो इनके साथ कोई था ही नहीं, अलबत्ता करना अपनी गाड़ी में दुखपाल और बैरागी को भर कर लाया था एक और कोई था जो काला चश्मा रात में भी पहने था, डॉ.बांगड़ू  चलो दिल्ली में राष्ट्रीय बैठक चल रही है, मैंने पत्र तो  शिक्षक संस्था के मंडलीय  महामंत्री मा.एल.नाथ को भेजा भी था और फोन पर भी कहा था, तुम्हारी टीम का कोई नज़र ही नहीं आया मा.एल.नाथ कह रहा था तुम लोगों का पता ही नहीं है, डॉ.बांगड़ू  तपाक से बोला जो ये नेता बनाये है ये जनता का नेता नहीं है, इसके दरबारी सारे पूंजीवादी, सांप्रदायिक और चमचे है उनको यह सारे ठेके दिलाता है ............... वो गए तो रहे होंगे ..?


राधेश्याम सर पर तेल मलते हुए चड्ढी बाहर धूप में फ़ैलाने के लिए निकले डॉ.बांगड़ू  खड़ा होकर अध्यक्ष जी नमस्कार अरे भाई डॉ.बांगड़ू  जी कहाँ है कल से ही आपकी खोज हो रही है मा.एल.नाथ फिर तिलमिलाया दुबे जी जल्दी तैयार होईये भाई साहब का ड्राईवर आ रहा है .
अध्यक्ष बोले - मा.एल.नाथ इन्हें ले चलो ....!
मा.एल.नाथ अचकचाता हुआ ... अध्यक्ष जी जल्दी कपडे पहनिए, अध्यक्ष राधेश्याम अरे भाई डॉ.बांगड़ू  आप भी तैयार होकर तो आये ही है आईये दिल्ली चलते है ..
मा.एल.नाथ खिसियाते हुए तो आप इनको लेकर आईयेगा हम तो जा रहे है, चलिए दुबे जी नास्ता करते है, अध्यक्ष और  डॉ.बांगड़ू  अवाक्.... नहीं अध्यक्ष जी आप जाईये मै तो बाल कटाने आया था नाइ के यहाँ भीड़ थी सो यहाँ आ गया संयोग था आप सब से मुलाकात हो गयी, कहाँ है मीटिंग  मौका निकाल कर मै आ जाऊंगा . बंग भवन .


डॉ.बांगड़ू नाई के यहाँ गया बाल कटाया पटरी की गुमटी के सामने नयी कार ओ भी थोड़े ऊँचे मोडल की नाई भी जरा साफ सा कपड़ा निकाला और डॉ.बांगड़ू के गले में लपटते हुए कहा काफी दिनों के बाद आना हुआ , डॉ.बांगड़ू  बोला काफी फसा हुआ था, नाई बोला मोहल्ले वाले मास्टर जी भी  आजकल नज़र नही आ रहे है , डॉ.बांगड़ू  बताया अभी मै वही से आ रहा हूँ जरा आजकल कुछ मेहमानों में घिरे है , मैंने उनसे नगरायुक्त से एक गुमटी के लिसेंस के लिए कहा था तब से आना ही छोड़ दिये, आपकी बात मानते है साहब मेरा लाइसेंस का कह कर करा दीजिये ! अरे भाई ओ किसी की बात नहीं मानते तुम्हे क्या लगा उनके कहने से काम हो जायेगा , वो पान वाला यादव कह रहा था नगरायुक्त इनके यहाँ आते जाते रहते है , एक बार और बोल के देख ले .


डॉ.बांगड़ू घूमते घामते बंग भवन पहुच गया, राष्ट्रीय अधिवेशन जहाँ सारे देश के शिक्षकों का जमावड़ा संगठन की संरचना का गहमी गहमा शिक्षकों का चंदा खा गए नेताओं की पद हथियाने की कवायद उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम हर रूप रंग के स्त्री व् पुरुष छुपे हुए एजेंडे , पर हर एक पर अविश्वास एक कोने में माँ. एल. नाथ सूबे के अध्यक्ष को जी भर कर गरिया रहा था पर दुबे जी कुछ बोल नहीं रहे थे एक तरफ विशाल साम्राज्य का शेर अपनी वीमारी से थका हारा रेसप्सन के सोफे पर आराम भी नहीं कर पा रहे थे कोई आकर कुछ कान में फुसुर फुसुर कर रहा है जो सुनायी दे रहा था उसमे अंतिम याचना संगठन में किसी न किसी पद की ही थी . मा.एल.नाथ कहीं से घूमते घामते आ गया, गुस्से में  तम तमाया बोला दुबे जी देख लीजियेगा मै संगठन नहीं चलाने दूंगा देखूंगा किसकी क्या औकात है पर दुबे जी जैसे मा.एल.नाथ को जैसे सुन ही नहीं रहे हों .


सूबे के अध्यक्ष राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाये गए थे जिसका संज्ञान दुबे जी को पहले से ही था या यूँ कहें की यह पद भी दुबे जी की अनुकम्पा का परिणाम ही था , माँ. एल. नाथ यह बात अच्छी तरह जानता था पर दुबे जी इसकी हरकत और औकात जानते थे , पर इतना जरुर था की अब मा.एल.नाथ से दुखी रहने लगे थे , एक और था जो दिखाने को तो बहुत भारी नेता था पर खाने पिने के कारण बीमार रहने लगा था उसे लोग प्यार से प्रोफ. पिपिया के नाम से ही पुकारते थे इस पर भी दुबे जी की दया दृष्टि थी यह बात मा.एल.नाथ को बहुत खलती थी. 


पिछले दिनों एक घटना घटी मा.एल.नाथ जो पार्टी का एस.जी . भी था पर जहाँ काम करने आया था वहां के संगठन वालों ने इस मा.एल.नाथ की प्राथमिक सदस्यता ख़त्म कर दी जिसकी खबर सभी समाचार पत्रों में छपी मा.एल.नाथ जानता था इसके पीछे किसका हाथ है इसी से वह प्रोफ.पिपिया से खूब चिढ़ता था, पिपिया भी उसी फर्जी इंचार्ज के साथ था जिसका कर्मचारी मा.एल.नाथ था पर इसमे कौन सी गोट कौन चल रहा है पता नहीं चल रहा था . जिस सभा में मा.एल.नाथ को निकाला जा रहा था उसमे केवल और केवल कोई नहीं था  तो वह डॉ.बांगड़ू और उसकी टीम . मा.एल.नाथ के सारे चमचे वहाँ मौजूद थे पर किसी ने चूं तक नहीं किया था .




(क्रमशः..................)