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समकालीन हिन्दी उपन्यासों में सामाजिक विषमता
श्रद्धा
सामाजिक विषमता के अन्तर्गत प्रत्येक स्तर की विषमता समाहित है, चाहे वह जाति या वर्ण की हो या धर्म, लिंग या किसी भी अन्य तरह की। यह अलग बात है कि दलित आंदोलन के कारण साहित्य में जाति-वर्ण-भेद और स्त्री विमर्श के कारण लिंग-भेद पर लोगांे का ध्यान अधिक जाता है। साहित्य में भी इसी विषमता के उदाहरण ज्यादा मिलते हैं। इन सभी प्रकार की विषमताओं में स्थायी भाव की तरह एक व्यक्ति के मुख्य और दूसरे के गौण होने का भाव बना रहता है। समकालीन हिन्दी उपन्यासों में इस तरह की विषमताओं के कितने ही रूप देखने को मिलते हैं।
धार्मिक स्तर पर ये विषमताएँ कम जटिल नहीं होती हैं चाहे उस धर्म को मानने वाला अपने धर्म से अनजान ही क्यों न हो। मेवात की मेव जाति के लोग अपने आपको मुसलमान मानते हैं। उनके लिये हिन्दू पराये हैं। उनके यहाँ से लड़की लाकर विवाह करना निकृष्ट काम माना जाता है। भगवान दास मोरवाल के उपन्यास ‘बाबल तेरा देस में’ जब फत्तू पारो को अपनी घरवाली बनाकर ले आता है तो गाँव की अन्य स्त्रियाँ छींटाकशी करती हैं- ‘मोहे तो पहले ही सक हो के जरूर ई कोई हिन्दुआणी ए करके लायो है। हमारी कौम में छोरी-छापरीन को काल पड़गो हो जो ई याहे उचके (सिर पर रखना) लायो हैं।’1 इसी कारण अन्य महिलाएँ पूरे परिवार के साथ भेदभाव करने लग जाती हंै। इस भेद भाव की शुरुआत अक्सर गाँव के कुएँ से होती है- ‘बहाण, दूसरान को दीन खराब करना सू बढि़या है ये दोनू सास-बहू अपना कुआँ पे काँई लू ना चली जाँए... सिरकार ने बनवा तो राखा है, चिमार-चुहड़ान का अलग कुआँ।’2 यद्यपि यह सब कहने वाली भी मेव जाति की हैं और सुनने वाली भी, मगर चूँकि असगरी के बेटे ने एक हिन्दू स्त्री से विवाह कर लिया है इसलिये वे उसे जाति बहिष्कृत कर के चमार जैसी निम्न जाति की तरह उसके साथ व्यवहार कर रहीं हैं। यह भेदभाव जीवन की छोटी से छोटी घटना मंे कई बार प्रवेश कर जाता है, जैसे अपने से कमतर समझी जाने वाली जाति का कोई व्यक्ति जब चप्पल उतार कर प्रवेश नहीं करता या चूल्हे चक्की को छू देता है। ‘बाबल तेरा देस में’ पारो और बत्तो के बीच कहासुनी में यही घटनाएं रहती हैं ‘...बत्तो को पारो की जो बुरी बात लगी, वह यह कि उसे चैके में जूतियों समेत नहीं आना चाहिए था। कम से कम उन्हंे तो बायने पर उतार कर आती।’3 इसी तरह दूसरी मर्तबा-‘और तो और पारो ने हद तो तब कर दी जब वह बत्तो के चैक में बने चूल्हे से एकदम सटकर बैठ गई।’ बत्तो ने पारो के इसी कुलखनेपन पर टोक दिया उसे। ‘पारो बहना काई का चूल्हा चैका ए तो देख लेए कर.....तैने तो बिल्कुल ही दीदा मूंद लिया।’4 पारो ब्राह्मण है, किन्तु मेव जाति के लड़के के साथ विवाह कर लेने के कारण वह मेवणी बन गई है। फिर भी उसमें जातीय अहंकार की झलक देखी जा सकती है। कहा जा सकता है कि जाति छूट जाने के बाद भी जातीय अहंकार नहीं मिटता-‘‘...हूँ कह री है बामणी हूँ। या गाँओं में आणा सू पहले रही होगी। अब तो तू मेवणी, है मेवणी।’ ...‘चल ई समझ ले... पर कभी तो ही।’ ‘पर कभी’ कहते हुए पारो के चेहरे पर एक गौरव भाव साफ झलक रहा था।’’5
जब तक व्यक्ति में जातीय चेतना नही पनपती तब तक वह अपने इतिहास और वर्तमान के प्रति जागरूक नही होता। और जब उसमें यह चेतना जागती है तो वह अपनी पूरी जाति का हिसाब किताब और फैलाव समझने की कोशिश करता है। ‘बाबल तेरा देस में’ कुम्हार जाति का पूरा ब्यौरा देखने को मिलता है- ‘‘वैसे रामचन्दर या जात का नाम भी घणाई है। कहीं याहे कुम्हार कहवे हैं, तो कहीं कुमावत। कहीं कुम्भकार कहवे है तो कहीं कुलाल। कहीं कुमार कहवें हैं तो कहीं पटेल और भग्गजी, परजापति, (प्रजापति) या परजापत तो तमने सुन ही राखा है। मजा की बात तो ई है कि बिहार में बहुत सा कुम्हार अपना नाम के पीछे पंड्डत (पंडित) लिखे हंैं।’’6
सोनदेई हिन्दू स्त्री है। वह लालदास के मन्दिर जाती है। वह लालदास को एक हिन्दु और उस जगह को मन्दिर जान कर जाती है। पर जब उसे पता चलता है कि उस मन्दिर का पुजारी एक मुसलमान है तो उसे उबकाई आने लगती है। लालदास जैसे पीर विश्वास की देन हैं, किन्तु लोक विश्वास भी जातीय विषमता से पूरी तरह प्रभावित है। लालदास जैसे पीर फकीरों की जात और धरम नहीं होती, किन्तु मेव इन्हंे पूरी तरह अपना पीर इसलिये नहीं मानते क्यांेकि यह एक मामूली सा लकड़हारा था और हिन्दू इनको जाति से मेव होने के कारण नहीं मानते। इस प्रकार जो थोड़े से लोग जाति धरम से ऊपर उठकर मानें लालदास उन्हीं के लिये पीर हैं।
एक व्यक्ति जो स्वयं जातीय विषमता का शिकार हुआ हो, मौका पड़ने पर वह दूसरों के साथ अपना जातीय गौरव दिखाने से नहीं चूकता। पारो जब नयी नयी मेवों के बीच आयी और लोगों को पता चला कि वह हिन्दू है तो कुएँ पर जाते वक्त लोगों ने दबे स्वर में इसके खिलाफ आवाज उठाई और उसे जाति से बाहर करने की कोशिश की, परन्तु धीरे-धीरे यह विरोध ठण्डा पड़ता गया। वहीं पारो जब मेवों के कुएँ पर हरिजन स्त्रियों को आते देखती तो बोल पड़ती- ‘तमने खुद ही सोचनी चाहिए के कहाँ जाँए और कहाँ न जाएँ। जब सिरकार ने तिहारों कुआँ अलग बनवा राखो है तो फिर तम वाही पे जाके क्यों ना मरों।’7 पारो में जातीय अंह कूट-कूट कर भरा है। उसकी बेटी जब किसी निम्न जाति के यहाँ बन रही पूडि़यों की सोंधी खुशबू के कारण पूड़ी खाने को मचल उठती है और पारो के लाख मना करने के बाद भी वह वहाँ एक पूड़ी खा लेती है तो पारो के गुस्से का ठिकाना नहीं रहता। यहाँ तक कि वह इस छोटी सी बात पर नसरीन का समर्थन करने के कारण फत्तू पर भी नाराज हो जाती है ‘चुप कर, तैने ही ये बालक बिगाड़ राखा है। ना जात देखे है, ना आनजात ए। पारो ने बीच में डाँटते हुए टोका फत्तू को।’8 जो व्यक्ति एक बार हाशिए पर ढ़केला जाता है दूसरी बार थोड़ा भी ऊपर उठने पर उसमें जातिगत कंुठा और बढ़ जाती है। दरअसल पारो कीे पूर्व कथा इस जाति विद्वेष के लिये कुछ हद तक जिम्मेदार है। पारो स्वयं ब्राह्मण है, लेकिन अपने ही घर मंे उसने यौन शोषण होते देखा तो फत्तू नाम के मेव के साथ अपने पिता का घर छोड़ कर मेवात में आ गई और फत्तू से ब्याह कर मेवणी बन गयी। ऐसी स्थिति में उसका ब्राह्मण होने का घमंड गया नहीं। एक तरफ एक ब्राह्मण हिन्दू स्त्री अपने धर्म को छोड़ कर मजबूरीवश एक मुसलमान पुरुष के साथ भाग आती है तो दूसरी तरफ जब दोनों धर्म वाले लोगों के सामने मजबूरी नहीं होती तो वे अपनी-अपनी धार्मिक अकड़ में रहते हैं। एक-दूसरे के यहाँ उन्हें खाना-पीना भी नागवार गुजरता है। इसीलिए बत्तो शकीला द्वारा चाय पीने के आग्रह के बावजूद उठकर चल पड़ती है, परन्तु शकीला उसे रोकते हुये कहती है- ‘आपा मै जानती हूँ कि आप हमारा खाती-पीती नहीं है। बेफिक्र रहिए आपको नहीं पिलाऊँगी .... आपके लिए कैम्पा की बोतल है ‘फ्रिज में’।’9 मार्केट की पैकेज्ड चीजों में कोई छूआ-छूत नहीं, पर घर की चाय में छूआ-छूत माना जाता है। इसी तरह मैत्रेयी पुष्पा ने ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ में एक घटना का जिक्र करते हुये बताया है कि समारोह में एक मुसलमान महिला हुस्नैन बानू को खाना बनाने के लिए बुलाये जाने पर महिलाओं ने खाना खाने से इन्कार कर दिया और यह बात मैत्रेयी की माँ कस्तुरी को बेहद बुरी लगी। ‘‘सबको सुनाकर कड़वी जुबान से बोली-यह है ‘महिला मंगल’। महिला मंगल की टरैनिंग। छूआ-छूत का तमाशा।’’10 इस पर सभी लोग जाति धर्म की दुहाई देने लगे। धर्म के नाम पर कट्टरता इस हद तक बैठी हुई है कि वे इन्सान को इन्सान नहीं, बल्कि धर्म के तराजू में तोल कर चलते हैं। हिन्दू से विवाह करने से अच्छा लड़की को बेच देना मानता है मुस्लिम समाज। यह धार्मिक कट्टरता बाबल तेरा देश में मौजूद है- ‘काई हिन्दू के घर बिठाणा सू तो बढि़या याहें कही बेच देणों। युनुस के नथुने फड़कने लगे।’11
जति-पाँति का भेद न केवल हिन्दुओं में बल्कि मुसलमानों के भीतर भी है। भेदभाव के अनेक स्तर हैं- ‘हाँ ये जात-पाँत का भेद तो है। मगर यह तो मुसलमानों में भी है। तुम रंगरेज हो वह कुजंड़ा है। फिर दूसरा कोई जुलाहा है, भिस्ती है। ये जात पाँत तो हिन्दुस्तान की आबोहवा में जहरीले धुएँ की तरह घुलमिल गया है।’12 किन्तु शहरीकरण के कारण शहरों में थोड़ी बहुत यह हवा बदली है। जो लोग अग्रेंजी पढ़ लेते हंै उनके बारे में माना जाता है कि उनमें अब यह भेदभाव नहीं बचा, किन्तु गाँव पुरों में अभी भी वही हाल है- ‘आज भी बसोर बड़ी जात के कुएँ पर नही चढ़ते। नीचे कीचड़-काँद में बसोरिनें गगरी टिकाए बैठी रहती हैं। फुर्सत पड़ने पर भरे जाते हैं उनके घैला-गगरी। घंटों बैठी बतियाती रहती हंै पनिहारियों से। और फिर वही पहुँचाती है बातों का ओर छोर हर घर में..... चलो कुआँ-घाट की बात तो दीगर ठहरी, पर पूजा-ध्यान, भजन-कीर्तन में नीच बिरादरी का क्या काम? आराधना में तो शुद्धता जरूरी है। पवित्तरता बताई गई है।’13 गाँव में स्कूल जाने वाले छोटे बच्चों के साथ भी इस तरह का भेदभाव देखने में आता है। वे ऐसे बच्चों के साथ गाली गलौज और गन्दी भाषा का उपयोग करते है जो उन्हे नीचा दिखाना चाहते हैं और शिक्षा से वंचित रखना चाहते हंै। ‘साले यह नहीं देखता कि पीपल पर देवताओं का वास होता है। स्कूल जैसी पवित्र जगह में बैठ जाने दिया तो तू हमारे देवताओं के मूँड पर नाचेगा?... स्कूल में घुस ही आया है तो सजा भुगत। बस्ता उतरवाना ही था तो किसी ब्राह्मण के लड़के से कह देता, पर वही चोरी से सबकुछ की आदत।’14
गाँवों में जाति विधान अभी भी वैसा ही बना हुआ है, जैसा आजादी से पूर्व था। आजादी के दस वर्ष बाद तक गाँवों में जाति विधान अपने-अपने कर्म विधान से जुड़ा रहा। मसलन चमारों ने मरे पशु डाले, जूते बनाए, तेलियों ने कोल्हू चलाया, गडे़रियों ने भेडे़ं पालकर ऊन और दूध दिया, कुम्हारों ने घडे़, दोहनी, सकोरे देकर किसानों की पूर्ति की, नाइयों ने सेवा टहल, हजामत, और बुलाने का काम संभाला। सक्का लोग द्वारों पर मशक से छिड़काव करते थे। बदले में बड़े किसान इन लोगों को गुड़, गेहूँ, जौ, चना, मटर, सरसों, दालें और भैंसांे का दूध घी देते थे। नम्बरदार जो उस समय प्रधान थे, आज भी कहते हैं-‘गाँव में कपड़ा और मिट्टी के तेल के सिवा सब कुछ था। बाजार के लिये हाट पेंठ जाना होता था। हमें तो वही तरक्की लगती थी। यह दीगर बात है कि छोटी जातियाँ बड़ी कौम की सेवा करने के बाद भी अपना वर्चस्व कायम न कर सकीं। उलटे उसी दबाव में रहीं, जिसमें पहले थीं।’15
किन्तु इतनी सारी सेवा लेने के उपरान्त भी खान-पान की शुचिता का प्रश्न जब-जब आता तो यही मेहनतकश जातियाँ नीच और कमीन मान ली जाती थीं। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘अगनपाखी’ की भुवन मेहतरानी के घर खाना बुरा नहीं मानती किन्तु उसके साथी मानते हैं। ’मैतरानी के घर के खाने के लिए एक बार नहीं, सौ बार छीः कहूँगा। हम गूजर है मैतरों से दस गुना बड़ी जात के।’16 चंदन में छोटी उम्र में भी यह ऊँच-नीच का भाव कूट कूट कर भरा हुआ है। इसी तरह विद्यासागर नौटियाल के उपन्यास ‘स्वर्ग दद्दा! पाणि पाणि’ में एक ही पानी के स्रोत से पानी भरने के बावजूद सवर्ण और अवर्ण के भाव के चलते लोग एक का मटका दूसरे के मटके से छूने से बचाने की कोशिश में पानी बर्बाद करते हंै- ‘सितानु हरिजन था। बहू राजपूत।... हाथ लगा देने से उसके गीले हाथ के कारण उसके अपने बर्तन में भरे हुए पानी को छूत लग जाती।’17 यह छुआ-छूत का भाव कभी कभी आदमी को इतना मजबूर कर देता था कि वह चाह कर भी व्यक्ति की मदद नहीं कर पाता। किन्तु दूसरी तरफ मजबूरी के कारण छुआ-छूत का भाव कहीं पीछे छूट जाता है। एस़0 आर0 हरनोट के उपन्यास ‘हिडिम्ब’ में शावणु भी एक ऐसे ही असमंजस में पड़ जाता है- ‘पास पानी की गड़बी पड़ी थी। शावणु का मन किया कि उठकर पानी की घूँट पिला दें, पर जाति के फासले आडे़ आते रहे। शोभा ने जब छाती मलते इशारा किया तो उसे विश्वास नहीं हुआ।... उनने ज्यादा नहीं सोचा। उठा, पानी उडे़ला और गिलास उसके होठों में लगा दिया।’18 कई बार जाति-पाँति कुछ नहीं होता। ऐसा लोग दिखावा करते हैं लेकिन उनके दिखावे का सच जानने के लिये जब उन्हें तुरन्त प्रमाण देने के लिये कहा जाता है तो वह धर्म संकट में फंस जाते हैं- ‘मोहन बाउ उलझन में फँस गए। अच्छा दोस्त कह दिया उसे। अब भुगतो मोची के घर चाय। भारद्वाज गोत्र के कुलीन ब्राह्मण हो। अपने कुल को मत लजाओ मोहन बाउ। कुम्भीपाक नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।’19 छुआछूत का ध्यान बरतनों इत्यादि में भी रखा जाता है। यदि नीच जाति के व्यक्ति को सामाजिक परिवर्तनांें के चलते भोजन कराना भी पडे़ तो उसकी थाली, कटोरी, गिलास अलग रखे जाते हैं, ताकि उन्हें न ठीक से धोने की जरूरत पडे़ और न वे बर्तन उनके दूसरे बर्तनों में मिलें- ‘मुझे हठात् ध्यान आया, राम की माँ मुझे कुछ भी खाने के लिये देती है तो किसी अलग बर्तन में, जो अलमुनियम का होता है। उसमें राम को क्यों नहीं देती? सम्भवतः उन्हें छूना नहीं पड़ता होगा मेरा जूठन और मेरे खा चुकने के बाद ऊपर से पानी गिराकर अलग रख देती हांेगी।’20
यह भेदभाव सार्वजनिक भोजों में भी यथावत बना रहता है। उनके लिये बारात से अलग निकृष्ट किस्म का खाना बनवाया जाता है और उसे उदारता से गन्दी जगह बिठा कर खिलानें में भी ऊँची जाति वाले अपनी दरियादिली मानते हैं- ‘पण्डित रामवृक्ष पाण्डे की पूरी परजा गड़ही के किनारे जमीन पर उकँडू बैठी थी और एक-एक कर, क्रम से, कचैड़ी, पूड़ी, उबला हुआ कोहड़ा, अलग से रामरस यानी नमक अचार और पिसी हुई चीनी परोसी जा रही थी। कटहल की रसेदार तरकारी और मिठाई आदि पर उनका हक नहीं था।’21 खान पान में लेकर उठने बैठने के भी तौर तरीके जातिगत भेदभाव के अन्तर्गत आते हंै। ‘बरखा रचाई’ में असगर वजाहत ने इसका एक नमूना दिया है- ‘किश्ना और राम सेवक नीचे जमीन पर बैठते हंै। नंबरी और यादव पहलवान तख्त पर बैठते हैं। यह भी नियम या इस तरह के नियम कितने पक्के हैं इसका अंदाजा मुझे पहले न था।’22 इसी तरह पानी पूछने के पीछे का मकसद कई बार यह जानना भी होता है कि व्यक्ति पहले से ही भाँप ले कि सामने वाला अलग धर्म का होने पर भी कट्टर है या नहीं? यदि वह पानी के लिये हाँ कहता है तभी उसे पानी पिलवाया जाता है- ‘‘पानी पिलवाया जाये आपको त्यागी जी?’ रहमत ने पूछा। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह पूछा क्यों जा रहा है। फिर ध्यान आया, हाँ जातिवाद.... हो सकता है, त्यागीजी मुसलमानों के यहाँ का पानी न पियें।’23
लेकिन यह पूरी व्यवस्था कुछ विशेष सन्दर्भों में चरमराने लगी है। छुआछूत शक्ति और बल के प्रयोग के कारण ही टिका रहता है। सत्ता परिवर्तन के कारण और आदिवासियों के बन्दूक उठा लेने के कारण अब इस स्थिति में परिवर्तन आने लगा है। भय से ही सही अब सवर्ण, निम्न समझी जाने वाली जाति के डाकुओं को सम्मान देते हंै- ‘कभी छोटी जात वाले खैनी बनाकर पूरी मात्रा आरती की थाली की भाँति आगे बढ़ाते थे। बाबू लोग उदारता पूर्वक उसमें से अधिकांश अपने लिए उठा लेते थे। हथेली पर शेष बचे चूरन पर संतोष करता था बनाने वाला। अब स्थिति पलट रही है।’24 इन नक्सलियों को सरकार मार कर इनका सफाया करना चाहती है, किन्तु ये वहाँ की आम जनता में लोकप्रिय हैं- ‘सो एसे कि पलामू के राजपूत-बाभन सब आदिवासियों को छुआछात (अछूत) बूझते हैं। न मान देते हैं न इज्जत...। तो जिसने आदिवासियों को इज्जत दिया मान दिया, महाजन का कर्जा भरने को रुपया दिया, उसी को तो मीत मानेंगे लोग।... बस, बन जाता है जगरनाथ लकड़ा से जौन लकड़ा...। बिजुलिया मरांडी से विलियम...! ‘बताओ अच्छा... तुमने कभी जलगांव के बाभनों के साथ एक पांत में बैठ कर न्यौता खाया है? ...आदिवासियों को मंदिर में घुसने देते हैं बाबाजी लोग?’25 हिन्दू जाति व्यवस्था मंे अपमान और घृणा के चलते आदिवासी धर्म परिवर्तन करके ईसाई बन जाते हैं- ‘बनासकाँठा के लगभग सारे मुण्डा क्रिस्तान बन गये हैं। गले में ‘क्रास’ पहिरने लगे हैं। चर्च भी जाते हैं और सरना में भी आते हैं पर सरना की पूजा में वे अपना हाथ नई लगाते। क्रिस्तान बनते ही बाबू जो हो गये है बनासकाँठा के मुण्डा।
अभी पुराने रीति रिवाज एकदम धोकर पी नहीं गये सो मुण्डा भाइयों के साथ रोटी बेटी का नाता चल रहा है पर वे रीति रिवाज धीरे-धीरे छोड़ना शुरू कर चुके हैं। ‘यहाँ सिंगबोगा को भी भूल रहे हैं, जो मुण्डा लोगों को सबसे बड़ा देवता है।’26 कुछ लोगों का भले ही ऐसा मानना हो कि धर्म परिवर्तन इस जाति विषमता से उबरने का एक उपाय है, किन्तु सच तो यह है कि यह मात्र समस्या से भागने का तरीका है, उसका समाधान नहीं। इसी उपन्यास में संजीव के शब्दों में इस सच को व्यक्त किया गया है- ‘धर्मान्तरण से कोई आर्थिक या सामाजिक समानता नहीं मिलने वाली। इसे धर्मान्तरण का ‘फस्र्ट एड’ नहीं बल्कि जनसंघर्ष की शल्य चिकित्सा चाहिए।’27
वर्तमान समय में एक बड़ा परिवर्तन यह आया है कि अब उच्च जाति वाले भी अपनी वस्तुस्थिति को थोड़ा बहुत ही सही, किन्तु स्वीकारने लगे हैं। ‘अगनपाखी’ मंे पैदल चल रहे पण्डित जी गधे की सवारी पर निकले कुम्हार को आगे जाने देते हैं और मन ही मन अपनी वस्तुस्थिति को स्वीकारते हैं ‘...क्योंकि कमीन कामगारों ने बड़ी जातियों की इज्जत करना छोड़ दिया है।’28 किन्तु बेटी के सम्बन्ध में ज्यादातर मामलों में अभी भी जाति-भेद पक्का है। तभी तो ‘प्रेम तपस्वी’ में ईसुरी और रजऊ की घनिष्ठता को स्वीकारने के बावजूद उनके विवाह की कल्पना नहीं की जा सकी- ‘भगवान ने ईसुरी और रजऊ की ऐसी जोड़ी बनायी है कि देखते बनती है। परन्तु बीच मंे जाति-भेद डाल दिया है।’29 आधुनिकता और सामाजिक बदलाव की लहर के चलते विधवा विवाह को एकबारगी स्वीकार भी किया जाने लगा है, किन्तु परायी जाति में विवाह से अपमान और जाति बहिष्कार का खतरा रहता है- ‘यह क्या अन्धेर है-विधवा का विवाह होगा, मेरे लड़के के साथ! फिर दूसरी जाति की लड़की! तुमने विरोध क्यों न किया?.... कैसी हँसी होगी, कान न दिये जावेंगे। कहाँ तो अन्य जाति का छुआ नहीं खाते, कहाँ अन्य जाति की बहू घर में बैठाल लोगे। कहाँ रहेगी यह नाक, सारी पण्डिताई मिट्टी में मिल जाएगी।’30 कई बार प्रेम के कारण लड़के-लड़की आवेश में एक-दूसरे के साथ भाग तो जाते हैं, किन्तु जब उनके बीच कहा-सुनी होती है, उस समय भी जाति को लेकर एक-दूसरे पर छींटाकशीं के मामले देखने में आते हैं। पुन्नी सिंह के उपन्यास ‘तिलचट्टे’ में एक ऐसी ही घटना का रोचक वर्णन मिलता है- ‘वह जाति का कहार था। अपने ही गाँव की किसी बड़ी जाति की लड़की को भगा लाया था। इस कारण से पति-पत्नी दोनों का ‘देश’ छूट गया था। उस वजह से जब दोनों में धर्म युद्ध छिड़ता था तब दोनों एक-दूसरे की जाति के नाम पर गालियाँ देते थे। उसकी पत्नी जब अपने आपको भ्रष्ट कर देने के लिए उसे कोसती तो वह खुद भी अपना ‘देश’ छुटा देने के लिए उसे जी भरके कोसता।’31
आदिवासियों में काफी स्वच्छन्दता होती है खासतौर से स्त्रियों को अपना जीवन साथी चुनने में काफी स्वतंत्रता होती है। वे अपने यौन आचारों में स्वच्छंद होती हंै, किन्तु किसी पुरुष को जब किसी स्त्री से प्रेम होता है तो उसे पहले उस स्त्री की अनुमति लेनी पड़ती है। कई बार आदिवासियों में जातीय विषमताओं के चलते विवाह में मुश्किलें भी आती हैं, ‘जैसे जो इतिहास में नहीं है’ के हारिल के साथ होता है। ‘हारिल मौन रहा। सोचा था उसकी धनुर्विद्या की कला, निशाने की दक्षता और बाजी की जीत के समक्ष जाति-गोत्र के बंधन ढ़ीले पड़ जाएँगे। महतो यदि उसे अपने साथ एक पांत में भोज खिलाने का मान दे सकता था, परन्तु..... महतो के बूढे़ चेहरे पर विवशता की गाढ़ी परत पुती थी।’32 कहा जाता है कि रोटी-बेटी का सम्बन्ध सभी जातियों में समान रूप से होने लगेगा तो जाति टूट जाएगी। संभव है आगे चलकर ऐसा हो, किन्तु अभी का सच तो यही है कि ‘जात तोड़कर शादी-विवाह तो खूब हो रहे हैं, लेकिन जात का खूँटा जरा भी नहीं हिल रहा है। बल्कि जात और मजबूत हो रही है।’33 शहर के प्रभाव में आकर कुछ उपन्यासों के कुछ पात्रों को जाति-पाँति और ऊँच-नीच न मानने वाला दिखाया गया है, जैसे ‘अकाल संध्या’ की ‘कजरी’। उसे लगता है कि यह जाति-पाँति केवल गाँवों में है, शहरों में कोई जाति नहीं पूछता। इसीलिये कजरी को गाँव वाली- ‘यही बात अच्छी नहीं लगी। हर बात में जात-पात! गाँव के लोगों मंे बस एक यही बात खराब है। जात जरूर पूछेंगे। बोली, ‘जात से क्या होता है भैया ? क्या इतना काफी नहीं है कि जनी जात हूँ आपके परिवार की और मुसीबत की मारी हुई हॅूं?’34 लेकिन कजरी शहरों का भी अधूरा सच जानती है।
शहरो में भी जाति-पाँति सामने से नहीं, पीछे से काम करती है। नौकरी में, सिफारिश में, परीक्षा में, अच्छे नम्बरों में सभी जगह जाति एक विशेष कारक होती है। गाँव हो या शहर, यह विडम्बना स्कूल से ही शुरू हो जाती है। ‘मजबूरी यह थी कि गाँव के प्राइमरी स्कूल में हरिजन बच्चों के प्रति सवर्ण परिवारों के बच्चांे का सलूक तिरस्कारपूर्ण तो था ही, आतंक जनक भी था। पिटाई के डर से हरिजन बच्चे अक्सर वहाँ से भाग जाते थे। बार-बार की शिकायतों के बाद भी जब सुधार नहीं हुआ तो गरीब दास ने इधर के बच्चों की पढ़ाई के लिए अलग इंतजाम किया।’35 यहाँ तक कि नये दौर में जब रात्रि पाठशालाएँ लगनी शुरू हुईं तब भी औरतंे आपस में ही जातीय विषमता के कारण मतभेद रखने लगीं- ‘अहीर औरतें अपने को पासी औरतों से श्रेष्ठ समझती थीं और उसके साथ मिलकर वे नहीं बैठती थीं। दमयन्ती ने कई बार समझाया कि इस तरह छुआछूत रखना ठीक नहीं। आदमी आदमी में भेद नहीं होता।’36 किन्तु सदियों से चले आ रहे इस भेद को महज ग्राम सेविका की मौजूदगी भला कैसे नकार सकती थी?
जातिगत विषमता के सन्दर्भ में लोगों के मन में कुछ पक्की धारणाएं बैठी हुई हैं। जैसे पासी यादवों के प्रति अवधारणा- ‘बड़ा हरामद्दर सिपाही है यह साँवला। जरूर यादव या पासी होगा। ऊँचे खानदान वाला इतना ‘हराम जादा’ नहीं हो सकता।’37 इसी तरह आदिवासियों को निम्न जाति का माने जाने के बारे में धारणा-‘महेन्दर बाबू छत्तरी (भूमिहार ब्राह्मण) है, जो बाप और बेटा नहीं जानता, ऊ सलट लेंगे शर्मा से लेकिन टेंगर तुम भी महातमा हो तुमरा जात भी खराब नहीं। खराबी कहाँ से है जानते हो.....? मैना में। उसका माँ गुलगुलिया था न, वोई असर आ गया है जात का।’38 यदि निम्न जाति में कोई गौरवर्ण का व्यक्ति हो तो उसका सम्बन्ध किसी उच्च जाति से जोड़ने के लिए उसकी माँ का गैर-व्यक्ति के साथ सम्बन्ध जोड़ने सम्बन्धी धारणा बन जाती है- ‘उसे यह बात समझ में नहीं आती कि उसके सभी लड़के काले हैं, मगर हरिभजन का गोबिन, उसकी बहनें- सब के सब गोरे हैं और सुन्दर कैसे हैं? उसका कहना है कि हरिभजन चमार की औरत किसी बामन राजपूत से फँसी होगी। इसलिए रंग बदल गया है।’39 किन्तु यह उच्च जाति वाले अपने खानदान में किसी का रंग काला होने पर यही बात अपनी स्त्री के लिये नहीं सोचते। ऐसे गौर वर्ण के लड़कों और लड़कियों का निम्न जाति का होने के बावजूद वे इस्तेमाल करने में कोई हिचक नहीं करते। लड़कियों से तो वे अपनी काम पिपासा शान्त करते हंै और लड़कों को नचनियाँ बना कर उनसे मनोरंजन करवाते हंै। यहाँ तक कि वे नाच में भी उन्हें कभी भगवान का पार्ट नहीं करने देते-‘ बार बार गोबिन का चेहरा उसकी (महन्त की) आँखों में नाच जाता था। उसे पार्टी में कैसे शामिल किया जाए? लांैडा बनकर मंच की शोभा तो बढ़ा सकता है।’40
सवर्णों के मन में सबसे अधिक खराब धारणा जो परम्परा से बैठा दी जाती है वह निम्न जाति के प्रति एक तरह की घृणा की भावना से भरे रहना है। वे निम्न जाति के व्यक्ति के साथ इतना कटु व्यवहार करते हैं जैसे वे उनके लिये पशु से भी गये बीते हों- रवि भाई, मेरे मन में उसी समय से संस्कार हीनता पैदा हुयी। मंै अकेले में अक्सर सोचा करता था कि ‘ये लोग ऊँचे लोग गाय-बैल भैंस से नहीं छुआते, मगर हमसे छुआ जाते हंै। आखिर क्यों?.....क्या बात है? क्या हम मवेशियों से भी गये बीते हंै?’41 नसीबलाल का यह कथन वस्तुस्थिति को स्पष्ट करने के लिये काफी है। लेकिन बात यहाँ पर खत्म नहीं होती। अगर सवर्ण को मजबूरीवश किसी निम्न जाति वाले को छूना पड़ा या उसके घर या बस्ती में जाना पड़ा तो वह अपवित्र हो जाता है और शुद्धीकरण के लिये उसे सबसे पहले नहाना पड़ता है। जातिगत विषमता को हमारी परम्पराएं ही मजबूत करती हैं- ‘विट्ठल बाबा गाँव भर के पुरोहित थे, वे कभी हरिजन बस्ती में जाते ही नहीं थे। फिर आधी रात को उठकर जाना बुढ़ापे के लिए सम्भव भी नहीं था, वहाँ से लौटकर नहाना धोना पड़ता।’42 हरिजन बस्ती में आग लगने पर भी विट्ठल बाबा वहाँ नहीं जाते और लोग मान लेते हैं कि ‘मुसहरों’ के घर रोज जलते हैं। पुलिस कहाँ-कहाँ दौड़ती चले।... मुसहर-तुसहर, चमार-दुसाध सुअरों की तरह बच्चे देते हैं। वे जब किसी काम के नहीं तो उन्हें मरना ही चाहिए।’43 और यह सब आगजनी का काण्ड केवल इन निम्न जातियों को सबक सिखाने के लिये किया जाता है। सवर्ण जातियों को निम्न जातियों का ऊपर उठना कतई बर्दाश्त नहीं-‘राड़ रेयान का मन बढ़ जाये तो समझो घोर अनर्थ के लक्षण! मुसहरों को सबक सिखाना जरूरी था। तोड़नी थी उनकी हिम्मत और एकता।’44
सवर्णों को अपनी धारणा में राई-रत्ती का परिवर्तन भी बर्दाश्त नहीं होता। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि निम्न जातियों में इतनी कुव्वत ही नहीं कि वे कुछ बन सकें या पढ़ सकें। इसके लिये वे हर सभंव प्रयास भी करते थे ताकि वे कुछ न बन सकें- ‘वे चाहते थे कि गूजर गड़रिया रावत सहरिया इनके लड़कों को पढ़कर कोई कलेक्टर थोडे़ ही बनना है। उसके लिए तो हमारे लड़के-लड़कियाँ बहुत है। और ये अगर पढ़ गये तो गढ़ी की बारह सौ बीघा जमीन पर काम करने को लोग कहाँ से आयेंगे। शायद इसीलिए उन्होंने स्कूल के प्रति यह रवैया अपनाया कि जो मास्टर स्कूल में नियुक्त हो वह स्कूल की अपेक्षा गढ़ी के प्रति ज्यादा समर्पित हो।’45 पण्डित जी की इसी सद्इच्छा के चलते पूरे आरसी गाँव के लड़के पढ़ने से वंचित रह जाते थे। कई बार यह इच्छा छिपे और गोपनीय रूप में नहीं, बल्कि खुले आम भी व्यक्त होती थी। वे खुले आम कहते थे, ‘छोटी जात का आदमी नेता बनेगा, इतिहास में आज तक किसी ने पढ़ा? वे हमारी गुलामी करने के लिए पैदा हुए हंै। चनर ज्यादा चहका तो आँखें काढ़ ली जाएंगी।’46 साम, दाम, दण्ड, भेद सभी तरीकों से सवर्णों का एक मात्र लक्ष्य यही रहता है कि किसी भी तरह से निम्न जातियों को दबाये रखा जाय, किन्तु जब ऐसा नहीं हो पाता हो सवर्ण मानसिकता को लगता है कि अकाल सन्ध्या हो रही है। जो होना था बाद में, वह पहले होने लगा। ‘असमय साँझ हो गयी। अकाल सन्ध्या और क्या होती है? अछूत जात का लड़का एस0पी0 बन गया नील पोखर किनारे उसका व्हाइट हाउस है। खवास बन गया हाकिम, विधायक यादव, प्रखंड यादव... अब बचा क्या?’47 निम्न जातियों के सत्ता में आ जाने से सवर्ण जातियाँ अपने पूर्व में किए गए अत्याचारों के कारण ज्यादा आतंकित रहती हैं। उन्हंे मालूम होता है कि उन्होंने निम्न जातियों के साथ कौन-कौन से गलत काम किये हैं जिसके कारण निश्चित ही वे अब बदला लेंगे- ‘दसियों वर्ष पहले जब पंडित जी की बहन के साथ गद्दी ने बलात्कार कर नंगे घुमाया था, इस अपराधिकी का जन्म होता है, आज एक चक्र पूरा कर यह उल्टा घूम गया। कास्ट हेटेªड और कास्ट वार के स्पाक्र्स इसमें स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।’48
कई बार निम्न जातियाँ अल्पसंख्यक नहीं होतीं, बल्कि उच्च जातियाँ गाँव में अल्प संख्या में होती हैं। ऐसी स्थिति में उन्हे भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जैसे ‘पानी बीच मीन पियासी’ उपन्यास में गाँव में मिथिलेश्वर की जाति (कायस्थ) के लोग कम हैं, जब उनके परिवार में डाका पड़ता है तो मिथिलेश्वर को अपनी जाति का गाँव में अल्पमत होना ही एक मात्र कारण लगता है। क्योंकि बहुल मत की जातियों के घरों में ऐसी घटनायें कभी नहीं होतीं- ‘जिस गाँव में जिस जाति के लोग ज्यादा होते हैं वहाँ उसी जाति का बोलबाला होता है। कम संख्या वाली जाति को वहाँ दबाया सताया जाता है। इस गाँव में हमारी यही स्थिति है।’49 किन्तु जब उनके पिता बीमार होते हैं तो जातिगत बन्धनों से ऊपर उठकर सभी कायस्थ परिवार के दुःख में शामिल हो जाते हैं- ‘लेकिन अब विचार करने पर मुझे साफ लगता है की अल्पसंख्यक होते हुए भी खेती गृहस्थी में पिताजी को आगे न निकलने देना उनका जातिगत पक्ष था जबकि बीमारी पर उनके प्रति सहानुभूति गाँव की बुनियादी संवेदना का सच।’50 दरअसल गाँव में किसी को आगे न बढ़ने देना, ईष्या करना आदि मनोभाव होते हैं किन्तु उनका स्वर बहुत व्यापक नहीं होता इसलिए दंगे वगैरह भी गाँव में नहीं शहरों में ही होते हैं। गाँव की प्रत्येक जाति-धर्म का व्यक्ति आपस में संवेदनायें बांटता है। वह कभी संवादहीनता की स्थिति नहीं आती। ‘गाँवों में तो विभिन्न संप्रदाय के लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते होते हैं। ...शहरों के सांप्रदायिक दंगे ही गाँवों को भी अशांत बनाते हैं।’51
जाति की समस्या एकांगी नहीं होती। वह राजनीति के साथ जुड़ कर समस्या को और गंभीर बना देती है। जाति और राजनीति के गँठजोड़ ने डाकू समस्या को और बढ़ावा दिया है। अक्सर डाकू जिस जाति का होता है उस जाति से सम्बंधित पार्टी कथित रूप से उसका सहयोग करती है- ‘लेकिन इस इलाके की एक अन्य बिमारी जातिवाद है। इसीलिये अक्सर देखा गया है कि डाकू और नेता का रिश्ता जाति के खांचे में ही ठीक से फिट हो पाता है।’52 किन्तु कई बार ऐसा नहीं होता जैसे ‘पाथरघाटी का शोर’ में पाल बिरादरी का कोई राजनैतिक संरक्षक नहीं था इसलिए वह इन नेताओं से भी टैक्स वसूलते थे और ये नेता इन गैंगों को टैक्स भी देते थे।
कुछ लोग हमेशा उच्च जाति का होने का भ्रम पाले रहते हैं, लेकिन ऐसे मिश्रित खून वालों को न सवर्ण स्वीकारते हंै और न अवर्ण। ये लोग भी अक्सर हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। ‘जहाँ खिलें है रक्तपलाश’ में टेकरू सिंह की स्थिति कुछ ऐसी ही है- ‘टेकरू सिंह की माँ कहारिन थी और पिता राजपूत। राजपूतों ने टेकरू सिंह को साथ बिठाकर भात खाने योग्य कभी नहीं समझा। टेकरू सिंह ने कभी स्वयं को कहार नहीं माना। ऐसे कितने टेकरू सिंह हैं पलामू में... सामंती व्यवस्था की जारज संतानें जिनकी सचमुच कोई जाति नहीं या एकाधिक जातियाँ हैं।’53 कई बार किसी जाति विशेष के व्यक्ति को एक खास अवसर पर तो देवता बना दिया जाता है, किन्तु बाकी समय वह समाज के हाशिये पर रहता है। ‘हिडिम्ब’ उपन्यास के शावणु की यही स्थिति है। नण जाति का शावणु ‘काहिका’ पर्व पर देवताओं की तरह पूजा जाता है, किन्तु बाकी समय उसे अछूत की तरह सड़ांध में मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। शावणु राजा की कथा देखना चाहता है। सोचता है कि वह चबूतरे पर बैठ जाए किन्तु वह ऐसा नहीं कर सकता- ‘लेकिन याद आ गई कि उसकी जाति के लोग तो बैठ ही नहीं सकते। इसीलिये मैदान के एक किनारे बैठ गया।’54 उसका बेटा चाह कर भी स्कूल की पूजा में अपनी तरफ से कोई मदद नहीं कर सकता- ‘वह जानता था कि उसके हाथ की तो लकडि़याँ भी मास्टर नहीं लेंगे। उनमें भी उनकी जाति की बू आती है...।’55 इस तरह एक पूरा परिवार हाशिये की जिंदगी जीने के लिए इसी जाति व्यवस्था के तहत मजबूर है।
स्त्री पर तो इस विषमता की दोहरी मार पड़ती है। वह उच्च वर्ण की हो या निम्न वर्ण की, उसे दोयम दर्जे का नागरिक ही समझा जाता है। उसके अधिकार नहीं होते, केवल कत्र्तव्य होते हैं और इसके लिए उसे बाकायदा बचपन से ही तैयार किया जाने लगता है- ‘गाँव में मैंने कभी नहीं पाया कि किसी लड़की के जन्म पर किसी घर में खुशी मनाई गयी हो, ...लड़कियाँ जब तक छोटी रहतीं उनके लिए नए कपड़े भी नहीं बनवाये जाते। ...जब वे कुछ बड़ी होतीं तब उनके लिए नए कपड़े आते, लेकिन बिलकुल सस्ते ... प्रायः सभी घरों में लड़कियों को लोग घाटे का सौदा समझते।’56 यह सिलसिला कभी रुकने का नाम नहीं लेता, लड़की के जन्म के बाद से उसके बड़े होने तक उस पर तरह तरह के प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं। उसे आक्षेप झेलने पड़ते हंै और असमानता तो उसकी नियति बन जाती है। एक स्त्री का भाग्य ही उसका सबकुछ मान लिया जाता है। किन्तु स्त्री विमर्श के कारण मोटे तौर पर कुछ परिवर्तन अवश्य आये हैं जिनसे आशा की उम्मीद जगी है।
जाति विषमता एक सामाजिक सत्य है किन्तु कुछ लोग ऐसा नहीं मानते, जबकि कुछ लोग इस सत्य को स्वीकार करते हंै और इस दीवार के धीरे धीरे टूटने की बात करते हैं। वहीं दूसरी तरफ राजनीति ने इस विषमता को और बढ़ा दिया है। आज पहले से कहीं अधिक जाति सभाएं बन गई हैं। लोगों में जातीय चेतना और अधिक प्रबल हो रही है, किन्तु एक प्रगतिशील समाज के लिए आवश्यक है कि ऐसे मठ और गढ़ तोड़े जाएं।
1. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 20
2. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 27
3. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 48
4. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 48
5. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 51
6. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 65
7. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 118
8. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 124
9. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 265
10. कस्तुरी कुण्डल बसै: मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 221
11. बाबल तेरा देस में: भगवानदास मोरवाल, पृष्ठ संख्या 395
12. खलीफों की बस्ती: शिवकुमार श्रीवास्तव, पृष्ठ संख्या 96
13. इदन्नमम: मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 38
14. अल्मा कबूतरी: मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 81,
15. चाक: मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 25
16. अगनपाखी: मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 30
17. स्वर्ग दद्दा! पाणि पाणि: विद्यासागर नौटियाल, पृष्ठ संख्या 26
18. हिडिम्ब: एस0 आर0 हरनोट, पृष्ठ संख्या 66
19. पहाड़ चोर: सुभाष पन्त, पृष्ठ संख्या 27
20. समकाल: मधुकर सिंह, पृष्ठ संख्या 27
21. मुखड़ा क्या देखे: अब्दुल बिस्मिल्लाह, पृष्ठ संख्या 16
22. बरखा रचाई: असगर वजाहत, पृष्ठ संख्या 14
23. बरखा रचाई: असगर वजाहत, पृष्ठ संख्या 12
24. जहाँ खिले है रक्तपलाश: राकेश कुमार सिंह, पृष्ठ संख्या 138
25. जहाँ खिले है रक्तपलाश: राकेश कुमार सिंह, पृष्ठ संख्या 74
26. पठार पर कोहरा: राकेश कुमार सिंह, पृष्ठ संख्या 73
27. पठार पर कोहरा: राकेश कुमार सिंह, पृष्ठ संख्या 175
28. अगनपाखी: मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 44
29. प्रेम तपस्वी: अम्बिका प्रसाद दिव्य, पृष्ठ संख्या 12
30. प्रेम तपस्वी: अम्बिका प्रसाद दिव्य, पृष्ठ संख्या 213
31. तिलचट्टे: पुन्नी सिंह, पृष्ठ संख्या 91
32. जो इतिहास में नहीं है: राकेश कुमार सिंह, पृष्ठ संख्या 367
33. अकाल सन्ध्या: रामधारी सिंह दिवाकर, पृष्ठ संख्या 169
34. अकाल सन्ध्या: रामधारी सिंह दिवाकर, पृष्ठ संख्या 106
35. गरीबदास: नागार्जून, पृष्ठ संख्या 30
36. ग्राम सेविका: अमरकान्त, पृष्ठ संख्या 39
37. तर्पण: शिवमूर्ति, पृष्ठ संख्या 63
38. धार: संजीव, पृष्ठ संख्या 22
39. समय कथाचक्र/सोनभद्र की राधा: मधुकर सिंह, पृष्ठ संख्या 103
40. समय कक्षाचक्र/सोनभद्र की राधा: मधुकर सिंह, पृष्ठ संख्या 111
41. टूटते दायरे: रामधारी सिंह दिवाकर, पृष्ठ संख्या 70
42. समय कथाचक्र/सबसे बड़ा छल: मधुकर सिंह, पृष्ठ संख्या 73
43. समय कथाचक्र/सबसे बड़ा छल: मधुकर सिंह, पृष्ठ संख्या 77
44. जहाँ खिले है रक्तपलाश: राकेश कुमार सिंह, पृष्ठ संख्या 9
45. वह जो घाटी ने कहा: पुन्नी सिंह, पृष्ठ संख्या 18
46. समय कथाचक्र/सबसे बड़ा छल: मधुकर सिंह, पृष्ठ संख्या 14
47. अकाल सन्ध्या: रामधारी सिंह दिवाकर, पृष्ठ संख्या 207
48. जंगल जहाँ शुरू होता है: संजीव, पृष्ठ संख्या 120
49. पानी बीच मीन पियासी: मिथिलेश्वर, पृष्ठ संख्या 18
50. पानी बीच मीन पियासी: मिथिलेश्वर, पृष्ठ संख्या 80
51. सुरंग में सुबह: मिथिलेश्वर, पृष्ठ संख्या 220
52. वह जो घाटी ने कहा: पुन्नी सिंह, पृष्ठ संख्या 208
53. जहाँ खिले हैं रक्तपलाश: राकेश कुमार सिंह, पृष्ठ संख्या 84
54. हिडिम्ब: एस0 आर0 हरनोट, पृष्ठ संख्या 217
55. हिडिम्ब: एस0 आर0 हरनोट, पृष्ठ संख्या 111
56. पानी बीच मीन पियासी: मिथिलेश्वर, पृष्ठ संख्या 111
संपर्क -
श्रद्धा,
आर -24 , राजकुंज, राजनगर,
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश - 201002
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